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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्वतंत्रता संग्राम में जैन ये अब पुन: जैनधर्म में लौट आये हैं। ये लोग पार्श्वनाथ के पूजक हैं। इनके गोत्रों के नाम तीर्थङ्करों के नाम पर हैं। ये मांस मदिरा का सेवन नहीं करते व कुछ-कुछ रात्रि भोजन के भी त्यागी हैं। उड़ीसा में ऐल खारवेल के बाद दो तीन शताब्दियों तक उसके वंशजों का राज्य चलता रहा। कलिंग जिन की प्रतिमा को लेकर उड़ीसा और मगध का द्वन्द्व प्रसिद्ध ही है। जैनाचार्य अकलंकदेव के समय (7वीं शती लगभग) कलिंगनरेश हिमशीतल महायानी बौद्ध था पर उसकी राजमहिषी मदनावती परम जिनभक्त थीं। कार्तिकी अष्टाह्निका के समय प्रथम रथ निकालने को लेकर जब विवाद हुआ तो भट्टाकलंकदेव सौभाग्य से वहाँ पहुँच गये। जैनों व बौद्धों का शास्त्रार्थ हुआ, जिसमें जैनों की विजय हुई। कलचुरियों के शासनकाल में महाकौशल प्रदेश में जैन शिल्प और स्थापत्य कला का अभूतपूर्व विकास हुआ था। चन्देल काल में खजुराहो में 84 विशाल मन्दिर बने थे, जिनमें अब लगभग आधे शेष हैं। इनमें 32 जैन मन्दिर भी बने थे। चन्देल राजा यद्यपि शिवभक्त थे तथापि वे सर्वधर्म सहिष्णु थे। इनके शासन काल में देवगढ़, खजुराहो, अहार, बानपुर, पपौरा, चन्देरी आदि नगरों में समृद्ध जैन बस्तियाँ थीं, और अनेक तीर्थो, मन्दिरों, शास्त्रों का निर्माण भी हुआ था। 12-13वीं शताब्दी में बुन्देलखण्ड में एक दानी धर्मात्मा हुआ, जिसने सैकड़ों जिनमन्दिर बनवाये थे। अनेक कुओं, तालाबों एवं बावडियों का भी उसने निर्माण कराया था। तत्कालीन राजाओं का पूरा-पूरा आश्रय उसे प्राप्त था। इसका सही नाम क्या था ? कोई नहीं जानता, पर किंवदन्तियों के अनुसार वह भैंसे पर तेल के कुप्पे लादकर व्यापार करता था। एक दिन वह जंगल में बैठा था। उसने देखा कि उसके भैंसे के खुर की लोहे की नाल सोने की हो गयी है। आश्चर्यचकित होकर उसने इधर-उधर खोज की तो उसे पारस-पथरी मिल गई, जिससे वह शीघ्र धनकुबेर हो गया। अपने भाग्य विधाता भैंसा या पाड़ा के कारण वह भैंसाशाह या पाड़ाशाह नाम से ही विख्यात हो गया। उसने विपुल दान दिया। कहा जाता है कि अन्त में अपने समाप्त से वह इतना ऊब गया कि पारस-पथरी को गहरे तालाब में फेंककर सन्तोष की सॉस ली। __पश्चिम भारत (वर्तमान गुजरात) का गिरनार महाभारतकालीन बाइसवें तीर्थङ्कर अरिष्टनेमि या नेमिनाथ, जिनका वेदों में अनेक बार उल्लेख है, की निर्वाण स्थली है। शैव, वैष्णव, जैन, बौद्ध सभी धर्म यहाँ फले-फूले। 8वीं शती के आरम्भ से लेकर 10वीं शती के प्रथम पाद तक राष्ट्रकूट गोविन्द तृतीय के वंशज मान्यखेट के सम्राटों के प्रतिनिधियों के रूप में गुजरात के बहुभाग के स्वतन्त्र शासक रहे। गुजरात के जैन सम्राट् अमोघवर्ष का चचेराभाई लाटाधिप कर्कराज सुवर्णवर्ष जैन धर्म का भक्त था। अपने एक ताम्रशासन द्वारा उसने 821 ई0 में नवसारी की जैन विद्यापीठ को भूमि आदि का प्रभूत दान दिया था। अन्य भी अनेक जैन राजा यहां हुए। सौराष्ट्र, भड़ौंच, आदि शहर आज भी जैनियों के गढ़ हैं। गुजरात में तत्कालीन जो स्थानीय राज्यवंश उदय में आये उनमें जैनधर्म की दृष्टि से चाबड़ा, चापोत्कट आदि वंश महत्त्वपूर्ण हैं। चावड़ा वंश के संस्थापक वनराज ने अपने गुरु जैनाचार्य शीलगुण सूरि के आशीर्वाद से मैत्रकों का उच्छेद करके 745 ई0 में अपने राज्य की स्थापना की थी। गुरुदक्षिणा में जब उसने पूरा राज्य देना चाहा तो गुरु ने एक सुन्दर जिन मन्दिर मात्र बनवाने के लिए कहा। तब वनराज ने 'पंचासार पार्श्वनाथ जिनालय' का निर्माण कराया था। For Private And Personal Use Only
SR No.020788
Book TitleSwatantrata Sangram Me Jain
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKapurchand Jain, Jyoti Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages504
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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