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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 46 स्वतंत्रता संग्राम में जैन अमर शहीद अमरचंद बांठिया भारतवर्ष का प्रथम सशस्त्र स्वाधीनता संग्राम 1857 ई0 में प्रारम्भ हुआ था। इसे स्वाधीनता संग्राम की आधारशिला कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इस संग्राम में जहाँ महारानी लक्ष्मी बाई, तात्या टोपे, मंगल पांडे आदि शहीदों ने अपनी कुर्बानी देकर आजादी का मार्ग प्रशस्त किया, वहीं सहस्रों रईसों और साहूकारों जोरियों के मुंह खोलकर संग्राम को दृढता प्रदान की। तत्कालीन ग्वालियर राज्य के कोषाध्यक्ष अमर शहीद अमरचंद बांठिया ऐसे ही देशभक्त महापुरुषों में से थे, जिन्होंने 1857 के महामसर में जूझ रहे क्रान्तिवीरों को संकट के समय आर्थिक सहायता देकर मुक्ति-संघर्ष के इतिहास में अपना नाम अमर कर लिया। अमरचंद बांठिया के पूर्वज बांठिया गोत्र के आदि पुरुष श्री जगदेव पंवार (परमार) क्षत्रिय ने 9-10वीं शताब्दी 5 अन्य मतानसार जगदेव के पत्र या पौत्र माधव देव/माधवदास ने 12वीं शताब्दी) में जैनाचार्य भावदेव सूरि से प्रबोध पाकर जैन धर्म अंगीकार किया था और ओसवाल जाति में शामिल हुए थे। कुछ इतिहासकार विक्रम की 12 वीं शताब्दी में रणथम्भौर के राजा लालसिंह पँवार के पुत्रों द्वारा जैनाचार्य विजय बल्लभ सूरि से प्रतिबोध पाकर जैन धर्म अंगीकार कर लेने से उनके ज्येष्ठ पुत्र बंठ से बांठिया गोत्र की उत्पत्ति मानते हैं। कुछ इतिहासकार माधवदेव द्वारा दानवीरता की अनुकरणीय परम्परा का श्रीगणेश करने के कारण (धनादि को बांटने के कारण) बांटिया बांठिया उपनाम की प्रसिद्धि मानते हैं। स्पष्ट है कि अमरचंद जी को दानवीरता का गुण जन्मजात ही मिला था। अमरचंद बांठिया का परिवार व्यापार/व्यवसाय हेतु सन् 1835 (वि०सं० 1892) में फलवृद्धि (फलौदी) में भूमि से प्रकट हुई चिन्तामणि पार्श्वनाथ की प्रतिमा के चल समारोह में अनेक संघपतियों के परिवार के साथ बीकानेर से ग्वालियर आया और यहीं बस गया। प्रतिमा की प्रतिष्ठा ग्वालियर के हृदय स्थल सर्राफा बाजार के शिखरबन्द जिनालय में संवत् 1893 में हुई थी। अमरचंद के दादा का नाम खुशालचंद एवं पिता का नाम अबीरचंद था। अमरचंद अपने सात भाइयों (श्री जालमसिंह, सालमसिंह, ज्ञानचंद, खूबचंद, सवलसिंह, मानसिंह, अमरचंद) में सबसे छोटे थे। अमरचंद बांठिया में धर्मनिष्ठा, दानशीलता, सेवाभावना, ईमानदारी, कर्तव्यपरायणता आदि गुण जन्मजात थे, यही कारण था कि सिन्धिया राज्य के पोद्दार श्री वृद्धिचंद संचेती, जो जैन समाज के अध्यक्ष भी थे, ने अमरचंद को ग्वालियर राज्य के प्रधान राजकोष गंगाजली के कोषालय पर सदर मुनीम (प्रधान कोषाध्यक्ष) बनवा दिया। उस समय सिन्धिया नरेश 'मोती वाले राजा' के नाम से जाने जाते थे। 'गंगाजली' में अटूट धन संचय था, जिसका अनुमान स्वयं सिंधिया नरेशों को भी नहीं था। विपुल धनराशि से भरे इस खजाने पर चांवोमों घण्टे सशस्त्र पुलिस बल का कड़ा पहरा रहता था। कहा जाता है कि ग्वालियर राजघराने में उन दिनों पीढियों स यह आन चली आ रही थी कि न तो कोई राजा अपने राजकोष की सम्पत्ति को देख ही सकता था और न उसमें से कुछ निकाल ही सकता था, अत: गंगाजली की सदैव वृद्धि होती रहती थी। इस अकूत धन संचय को कोषाध्यक्ष के अतिरिक्त और कोई नहीं जानता था। अमरचंद बांठिया इस खजाने के रक्षक ही नहीं ज्ञाता भी थे, वे चाहते तो अपने लिए मनचाही रत्न राशियाँ निकालकर कभी भी धनकुबेर बन सकते थे। पर बांठिया जी तो जैन धर्म के पक्के अनुयायी थे, जो राजकोष का एक पैसा भी अपने उपयोग में लाना घोर पाप समझते थे। For Private And Personal Use Only
SR No.020788
Book TitleSwatantrata Sangram Me Jain
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKapurchand Jain, Jyoti Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages504
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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