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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -- - समयार्थबोधिनी का प्र. भु. अ. १५ आदानीयस्वरूपनिरूपणम् तपोरूपानुकूलमारुतेरितः दुःखसंकुलासंसारसागरात् मोक्षरूपं तीरं समवाप्य सर्व दुःखेभ्यो दूरी भूय साधपर्यवसितमनन्तमव्याबाधं सिद्धिमुखमनुभवतीति भावः।५। मूलम्-तिउट्टइ उ मेहावी जाणं लोगसि पावगं । तुदृति पावकम्माणि नवं कम्म मकुठवओ॥६॥ छाया-त्रुटयति तु मेधावी जानन् लोके पापकम् । त्रुटयंति पापकर्माणि नवं कर्माकुर्वतः ॥६॥ से दूर होकर विश्राम को प्राप्त होती है, उसी प्रकार वह मुनि भी समस्त दुःखों का अन्त करने वाला होता है। तात्पर्य यह है कि भावनायोग से जिस की आत्मा शुद्ध है ऐसा जीव जिनोक्त आगम रूपी निर्यामक द्वारा अधिष्ठित तथा तपस्या रूपी अनुकूल वायु से प्रेरित होकर दुःखों से व्याप्त संसार सागर से मोक्ष रूपी तीर को प्राप्त करके, सब दुःखों से दूर होकर सादि अपर्यवसित, अनन्त अव्यायाध सिद्धिसुख को अनुभव करने लगता है ॥५॥ 'तिउ उ मेहावी' इत्यादि । शब्दार्थ-'मेहावी उ-मेधावी तु' सदसद्विवेकी मर्यादापालक मुनि 'लोगंसि-लोके' स्थावर जंगमात्मक अथवा पंचास्तिकायात्मक जगत् में 'पावगं-पापकम्' सावधानुष्ठानरूप पापकर्म 'जाणं-जानन्' ज्ञपरिज्ञासे कर्मषन्धके हेतुरूप जानकर के 'तिउट्टह-त्रुटयति' पृथक् होजाते સઘળા દુઃખોથી દૂર થઈને વિશ્રામ પ્રાપ્ત કરે છે. એ જ પ્રમાણે તે મુનિ પણ સઘળા દુઃખેને અંત કરનારા થાય છે. તાત્પર્ય એ છે કે–ભાવનાગથી જેઓને આત્મા શુદ્ધ છે. એ જીવ જીત આગમ રૂપ અનુકૂળ વાયુથી પ્રેરણા પામીને દુઃખથી વ્યાપ્ત એવા આ સંસાર સાગરથી મેષ રૂપી કિનારાને પ્રાપ્ત કરીને, સઘળા દુખેથી દૂર થઈને સાદિ અપર્યાવસિત, અનંત, અવ્યાબાધ સિદ્ધિ રૂપ સુખને અનુભવ કરવા લાગે છે. પા __ 'तिउट्टइ उ मेहावो' त्यावि ___war - 'मेहावी उ-मेधावी तु' स६ असतू मय२ पापाजो मर्यात भा। पास मुनि 'लोग'सि-लोके' स्था१२ माम मया याति याम तुमi 'पावर्ग-पापकम्' सापद्यानुन ३५ ५।५४म 'जाणं-जानन्' परिक्षाथी मगधना हेतु ३५ लान, 'तिचट्टइ-त्रुट्यति' असा AS नय For Private And Personal Use Only
SR No.020780
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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