SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 515
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir + -- सूत्रहलाद अन्वयार्थ:-(मेहावी उ) मेधावी तु सदसद्विवेकी मर्यादावान् मुनिः बोगसि) लोके स्थावरजङ्गमात्मके पश्चास्तिकायात्मके वा जगति (पास) पापकं सावधानुष्ठानरूपं पापं कर्म (जाणं) जानन ज्ञपरिज्ञया कर्मबन्धहेतुभूतस्पेन अवबुध्यमानः सन् (तिउटइ) त्रुटयति-पृथग्भवति सावधानुष्ठानाद् विरमति वर्तमानकाले प्रत्याख्यानपरिज्ञया पापं कर्म न करोतीत्यर्थः । तथा (नवं) नवंन्तनम् अग्रे करिष्यमाणं (कम्म) कर्म (अकुवओ) अकुर्वतः-अनाचरतस्तस्य मुनेः (पावकम्माणि) पापकर्माणि-अतीतकालेऽनन्तभवोपार्जितत्वेन संचितानि पापहैं अर्थात् सावधानुष्ठानसे निवृत्त होते हैं तथा 'नवं-नवम्' नूतन आगे किये जाने वाले 'कम्म-कर्म कर्म को 'अकुपो -अकुर्वतन करते हुए उस मुनिको 'पावकम्माणि-पापकर्माणि' अतीत काल में अनेक भवोपार्जित होने से संचित पापकर्म 'तुति-त्रुटयन्ति' छूट जाते है अर्थात् वह मुनि वर्तमान भविष्य, और भूत ऐसे तीनों काल संब. न्धी पापकर्म से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त करता है । ६॥ ____ अन्वयार्थ--सत् असत् के विवेक से युक्त मेधावी मुनि स्थावर जंगम रूप या पंचास्तिकायमय जगत् में पाप कर्मों को ज्ञपरिज्ञा से कर्मबन्ध का कारण जानता हुभा सावद्य अनुष्ठान से विरत हो जाता है। वर्तमान काल में प्रत्याख्यान परिज्ञा से पापधर्म नहीं करता है। तथा आगे किये जाने वाले पापकर्म का आचरण न करने वाले मुनि के अतीत काल में अनन्त भवों से संचित किये हुए पापकर्म भी थे. अर्थात् सावध मनु हानथा निवृत्त 25 14 छ. तथा 'नव-नवम्' नवीन अर्थात पछीथी ४२वामा भावना२३ 'कम्म-कर्म' भने 'अकुव्वओ-अकुर्वतः' न ४२ना। मेवा से मुनिन 'पावकम्माणि-पापकर्माणि' अतीत मा भने भोपालथी सथित ५५ 'तुति-त्रुध्यन्ति' शुटि नय छे. અર્થાત તે મુનિ વર્તમાન ભવિષ્ય અને ભૂતકાલ એમ ત્રણે કાળ સંબધી પાપકર્મથી મુક્ત થઈને મોક્ષને પ્રાપ્ત કરે છે. દા અન્યથાર્થ–સત્ અસતના વિવેકથી યુક્ત મેધાવી મુનિ સ્થાવર, જંગમ, રૂ૫ અથવા પંચાસ્તિકાય મય જગતમાં પાપકર્મોને જ્ઞ પરિણાથી કર્મબંધનું કારણ જાણીને સાવદ્ય અનુષ્ઠાનથી વિત થઈ જાય છે. વર્તમાનકાળમાં પ્રત્યાખાન પરિજ્ઞાથી પાપકર્મ કરતા નથી. તથા આગળ કરવામાં આવનારા પાપ કર્મનું આચરણ ન કરવાવાળા મુનીને ભૂતકાળમાં અનંત ભામાં સંચિત કરવામાં આવેલ પાપકર્મ પણ આત્માથી અલગ થઈ જાય છે. તાત્પર્ય એ છે For Private And Personal Use Only
SR No.020780
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy