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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे अन्वयार्थ:-पूर्वोक्ता लोकायतिकादयः (गिरा) गिरा-स्ववचसा (गहीए) समते स्वीकृतेऽर्थे (संमिस्सभावं च) संमिश्रमावं च-अस्तित्वरूपं द्विषाभावं कथयन्ति (से) सा-तेषां मध्ये यः कश्चित् सः केनाऽपि पृष्टः सन् (मुम्मुई) (सम्म) इत्यव्यक्तभाषी, यद्वा मूकमूकः-अत्यन्तमूक एव (होइ) भवति । तिक भादि 'संमिस्सभावं-संमिश्रभावम्' मिश्र पक्षको अस्तित्व नास्तित्व रूप विधा भावसे कहते हैं अर्थात् पदार्थ की सत्ता और सत्ता दोनों से मिश्रित पक्ष को स्वीकार करते हैं 'से-स' वे कोई जिज्ञासु के द्वारा पूछने पर 'मुम्मुई-मूक मूक' मौनावलम्बी 'होइभवति' हो जाते हैं इतनाही नहीं किन्तु 'अणाणुवाई-अननुवादी' स्थाबाद्वादियोंके कथन का अनुवाद करने में भी असमर्थ हो कर मूक हो जाते हैं और इम-इदम्' इस परमत को 'दुपक्ख-द्विपक्षम्' प्रतिपक्षवाला कहते हैं और 'इम-इदम्' अपने मतको 'एगपक्ख-एकपक्षम्' प्रतिपक्ष रहित है ऐसा 'ओहंसु-आहुः' कहते हैं तथा 'छलायतणं-छलायतनं' कपटयुक्त 'कम्म-कर्म' कर्म अर्थात् कपट युक्त वाग्जाल रूप कर्म करते हैं ॥५॥ अन्वयार्थ-पूर्वोक्त नास्तिक आदि अपने वचनों से स्वीकृत पदार्थ में भी संमिश्र भाव कहते हैं अर्थात् जब अपने स्वीकार किये अर्थका ही निषेध करते हैं तो विधि और प्रतिषेध दोनों कर देते हैं। जब उनसे कोई प्रश्न करता है तो वे बिलकुल मूक हो जाते हैं। यही नहीं परन्तु रता यति विशेरे 'संमिस्सभावं-संमिश्रभावम्' भित्र पक्षने मस्तित्व નાસ્તિત્વરૂપ દ્વિધા ભાવથી કહે છે. અર્થાત્ પદાર્થની સત્તા અને અમૃત્તા બને થકી મિશ્રિત પક્ષને સ્વીકાર કરે છે. “હે-' તે લેકે કઈ જીજ્ઞાસુ ३२॥ ५७१ाम मावे त्यारे 'मुम्मुई-मूहमूकः' भीननु असमन ४२११॥ 'होइ-भवति' थाय छे. मे ४ नही ५Y 'अणाणुवाई-अननुवादी' २यादा દવાદિના કથનને અનુવાદ કરવામાં પણ અસમર્થ બનીને મૂંગા બની જાય 2. भने 'इमं-इदम्' मा ५२मतने 'दुपक्खं-द्विपक्षम्' प्रतिपक्षपा ४. छे. भने इमं-इदम्' पाताना भतने 'एगपखं-एकपक्षम्' प्रतिपक्ष विनानी छे से प्रमाणे 'आहंसु-आहुः' ४ छ. तथा 'छलायतणं-लायतनम्' ४५८ सारेसा 'कम्म-कर्म' पाविलास ३५ ४ ४२ता २९ छे. ॥५॥ અન્વયાર્થ–પૂર્વોક્ત નાસ્તિક વિગેરે પિતાના વચનેથી સ્વીકારેલા પદાથમાં પણ સંમિશ્રભાવ કરે છે. અર્થાત જ્યારે તે સ્વીકારેલા અર્થનેજ નિષેધ કરે છે. તો વિધિ અને નિષેધ બને એકી સાથે કરી બેસે છે. તેઓને For Private And Personal Use Only
SR No.020780
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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