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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org समार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १२ समवसरणस्वरूपनिरूपणम् सर्वव्यापक तत्र तेsपि - अक्रियावादिनः सांख्काराः । तदेवं चार्वाकबौद्धसांख्य काराः अक्रियावादिनः अनुपसंख्यया- अज्ञानेन एतत्पूर्वोक्तं कययन्तीति । मूलम् - सम्मिस्तभावं च गिरा गंहीए, से मुम्मुई होइ अाणुवाई इमं पक्खं ईम मेक्ख, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हंसु छैलायतणं च कैम्मं ॥2॥ छाया - 'संमिश्रभावं च गिरा गृहीते, समृकमूको भवत्यननुवादी । इदं द्विपक्षमिदमेकपक्ष, माहुछळायतनं च कर्म ॥५॥ करते । जय वर्त्तमान क्षण का अतीत अनागत क्षणों के साथ कोई संबंध ही नहीं है तो क्रिया और क्रिया जनित बंध भी सिद्ध नहीं हो सकता। इसी कारण वे क्रिया का निषेध करते हैं । इनके अतिरिक्त जिनके मत में आत्मा व्यापक है और इस कारण निष्क्रिय है, वे भी अक्रियाबादी हैं। ऐसे अक्कियावादी सांख्य हैं। इस प्रकार चार्वाक, बौद्ध और सांख्य ये सभी अक्रियावादी अज्ञान के कारण पूर्वोक्त कथन करते हैं ||४|| 'सम्मिसभावं च' इत्यादि । शब्दार्थ-वे पूर्वोक्त लोकायतिकादि 'गिरा-गिरा' अपनी वाणी से 'गहीए गृहीते' स्वीकार किये हुए पदार्थ का निषेध करते हुए लोकाय જ્યારે વર્તમાન ક્ષણના અતીત અનાગત ક્ષણેાની સાથે કાઈ સંબન્ધુજ નથી. તા ક્રિયા અને ક્રિયાથી થવાવાળા અંધ પણુ સિદ્ધ થઈ શકતા નથી. એજ કારણથી તેઓ ક્રિયાના નિષેધ કરે છે. આ શિવાય જેઓના મતમાં આત્મા વ્યાપક છે, અને તે કારણથી તે નિષ્ક્રિય છે, તેઓ પણ અક્રિયાવાદીજ છે. એવા અક્રિયાવાદી સાંખ્યા છે, આ રીતે ચાક, ઔદ્ધ, અને સાંખ્ય એ બધા અક્રિયાવાદી અજ્ઞાનના કારણે પૂર્વક્તિ કથન કરતા રહે છે. ૪૫ 'सम्मिसभावं' इत्यादि शब्दार्थ — ५२ पडेसां उडेवामां मावेस सोडायति अहियो 'गिरा-गिरा' पोतानी वालीथी 'गहीए - गृहीते' स्वीर इरवामां भावेक्ष पहार्थना निषेध For Private And Personal Use Only
SR No.020780
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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