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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३४८ सूत्रकृताङ्गसूत्रे वैतरिणीम् 'उसुचोइया' इषुनोदिता-बाणेन प्रेरिताः 'सत्तिमु हम्ममाणा' शक्तिभिश्च हन्यमानाः सन्तः, तामेव वैतरणी 'तरंति' तरन्ति, पतन्तीति भावः ॥८॥ मूलम्-कीलेहि विझंति असा हुकम्मा नावं उविते सईविप्पडणा। अन्नेतु सूलाहिं तिसूलियाहिं दीहाहि विळूण अहे करंति।९। छाया--कीलेषु विध्यन्ति असाधुकर्माणः नावमुपेताः स्मृतिचिमहीणाः। अन्ये तु शूलैत्रिशूलैर्दीधैं विद्ध्वाऽधः कुर्वन्ति ॥९॥ अन्वयार्थः-(नावं उविते) नावमुपाता:-नावारूढाः (असाहुकम्मा) असाधु. कर्माणः-परमाधार्मिका तान् नारकान् (कोलेहिं विझति) कीलेषु विध्यन्ति,उसे शान्त करने के लिए उस दुर्गम और भयंकर वैतरणी नदी में बाणों से प्रेरित होकर तथा शक्ति नामक शस्त्रों से आहत होकर गिरते हैं ॥८॥ शब्दार्थ-'नावं उविते-नावमुपेताः' नाव पर बैठकर आते हुए 'असाह कम्मा-असाधु कर्माण परमावार्मिक कीलेहिं विज्झति-कीलेषु विध्यन्ति' कीलों से कण्ठ में बौंधते हैं । विध्यमान वे नारक 'सहविप्पहूणा-स्मृतिविहीणा।' स्मृतिरहित होकर किंकर्तव्यमूढ हो जाते हैं तथा-'अन्ने तु-अन्ये तु' दूसरे नरकपाल 'दीहाहि-दीर्धेः' दीर्घ 'मूलाहि-शूले' शूलों से एवं तिलूलियाहि-त्रिशूलैश्च' त्रिशूलों के द्वारा 'विधूण अहे करंति-विद्ध्याधः कुर्वन्ति' नारक जीवों को वेधकर नीचे फेंक देते हैं ॥९॥ .... अन्वयार्थ-नौका पर आरूढ होकर असाधुकर्मी परमापार्मिक उन नारकों के कंठ को पीलों से वेवते हैं । विधे गये थे नारक स्मृतिજ દુષ્કર ગણાય છે. પરમાધાર્મિક દેના તીરોથી પ્રેરાએલાં અને ભાલાથી ઘવાએલાંને વૈતરણ નદી પાર કરવી પડે છે. ૮ शहाथ---'नावं उविते-नावमुपेताः' ना१ अर्थात ही ५२ मेसीने मावता मेवा नावाने असाहुकम्मा-असाधुकर्माणः' ५२भाषामिछ। 'कीलेहि विझंति-कोलेषु विध्यन्ति' Hi Sa पीछे वीपाये। मेवात ना२४ ७ 'सइविप्पहूणा-स्मृतिविहीणाः' स्मृति विनाना थने तथ्यभूट 25 जय है. तथा 'अन्ने तु-अन्ये तु' भी न२४५. दीहाहि-दोधै:' ain मेवा 'सूलाहि-शुलैः' शूबोथी तमा 'तिसूलियाहि-त्रिशूलैश्च' त्रिशुद्ध १२'विधूण आहे काति-विद्ध्वाऽधः कुर्वन्ति' ना२ व विधीने नये ३४ी है 2.६। સૂત્રાર્થ–નૌકાઓમાં બેસીને તે અસાબુકમ પરમધામિક દે તે નાયકે પીછે પકડે છે. તેઓ નારકોના કંઠમાં ખીલાઓ લેકી દે છે. For Private And Personal Use Only
SR No.020779
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages729
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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