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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (५) आ० पूज्यपाद तीर्थकर का तप फरमाते हैंऋजुकूलायास्तीरे, शालद्रुमसंश्रिते शिलापट्टे । अपराह्ने षष्ठेनाऽऽस्थितस्य खलु जूंभिकानामे ॥११॥ यह भगवान का आखिरी छद्मस्थ तप है। वैसे तीर्थकर भग. वान् केवली जीवन में भी तप करते हैं । केवली तीर्थकर खाते हैं पीते हैं और तप भी करते हैं, देखिये आद्यश्चतुर्दशदिन-विनिवृत्तयोगः । षष्ठेन निष्ठित कृतिर्जिनवर्धमानः । शेषा विधूतघनकर्मनिबद्धपाशाः। मासेन ते यतिवरास्त्वभवन् वियोगाः ॥२६॥ (निर्वाणभक्ति लो० २६) मोक्ष जाने से पहिले केवली भगवान् आदिनाथने चौदह दिन के उपवास किये, केवली तीर्थंकर श्री वर्धमान स्वामी ने षष्ठ तप किया, और शेष २२ केवली तीर्थंकरोंने एक महिने का अनशन तप किया। अंतमें ये सब कर्मपाश को तोडकर अयोगी-अशरीरी बने व मोक्षमें पधारे, यह निर्वाण तप है। यहाँ षष्ठ शब्द का अर्थ दो दिन किया जाय तो वह भ्रम है, यह शब्द दिगम्बर परिभाषामें भी तपस्या का ही सूचक है, इससे षष्ठ का अर्थ बेला-तप ही होता है । इस निर्वाण तपके पाठसे स्पष्ट है कि केवली भगवान् केपली जीवन में आहारपानी लेते हैं, सीर्फ निर्वाणसे अमुक दिन पहिले आहार पानी को छोड़ देते है, और द्रव्य मन, वचन, और काया की क्रियाओं को तो अयोगी स्थान में जाने पर ही रोक देते हैं। ___.श्वेताम्बर मान्यता में भी तीर्थंकरों का निर्वाणतप उपरोक्त पाठ के अनुसार ही है या कहा जाय कि उक्त पाठ श्वेताम्बर मान्यता का प्रतिघोष ही है। देखिये, चतुर्दश पूर्वधारी श्री भद्रबाहुस्वामी फरमाते हैं कि-- निव्वाणमंतकिरिया, सा चौदसमत्तेण पढमनाहस्स । सेसाण मासिएणं, वीरजिणिंदस्स छद्रेणं । ॥३०६॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020729
Book TitleShvetambar Digamber Part 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshanvijay
PublisherMafatlal Manekchand Shah
Publication Year1943
Total Pages290
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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