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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir MISSION तो भणियं जणणीए, बहुसिन्नं मेलिऊण चउरंग। गिन्हसु नियपियरज, मह हिययं कुणसु निस्सलं ॥४६॥ | अर्थ-तब माता बोली हे पुत्र चार अंगजिसके ऐसी हाथी घोड़ा वगैरेहः बहुत सैन्य एकट्ठी करके अपने पिताका राज्य ग्रहणकर और मेरा हृदय निशल्य कर ॥ ३४६ ॥ कुमरेणुत्तं सुसुरयबलेण, जं गिएहणं सरजस्स । तं च महच्चिय दूमेइ, मज्झचित्तं ध्रुवं अम्मो ॥३४७॥ ___ अर्थ-कुमरने कहा हे माताजी सुसरेके बलसे जो अपना राज्य लेना वह निश्चय मेरे मनको उदास करे है ॥३४७॥ उता जइ सभुयज्जिय सिरिबलेण, गिन्हामि पेइयं रजं । ता होइमझ चित्तंमि, निवई अन्नहा नेव ॥४८॥ ___ अर्थ-तिसकारणसे अपना भुजोंसें उपार्जितकीभई लक्ष्मीके वलसे अपने पिताका राज्य ग्रहण करूं तब मेरे चित्तमें निवृत्ति होवे अन्यथा और प्रकारसे सुख होवे नहीं ॥ ३४८ ॥ तत्तो गंत्तृणमहं, कत्थवि देसंतरमि इकिल्लो। अज्जियलच्छिबलेणं, लहं गहिस्सामि पियरजं ॥४९॥ ___ अर्थ-तिस कारणसे मैं एकाकी कहांभी देशान्तरमे जाके लक्ष्मी उपार्जनकरके जल्दी पिताका राज्य ग्रहण करूंगा ॥ ३४९॥ तं पइ जंपइ जणणी, वालो सरलोसि तंसि सुकुमालो, । देसंतरेसुभमणं, विसमं दुक्खावहं चेव ॥३५०॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020724
Book TitleShripal Charitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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