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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एएहिं नवपएहिं रहियं, अन्नं न अत्थि परमत्थं । एएसुच्चिय जिणसासणस्स, सबस्स अवयारो ॥९२॥ अर्थ - इन नवपदों करके रहित और परमार्थ तात्विक अर्थ नहीं है ये नवपदों में सर्व जिनशासनका अवत रण है ॥ ९२ ॥ | जेकिर सिद्धा सिइझंति, जेय जे यावि सिझ्झइस्संति । ते सधेवि हु नवपयझाणेणं चेव निब्भंति ॥९३॥ अर्थ - निश्चय जे जीव अतीत कालमें सिद्ध भया अर्थात् मुक्तिगया और जे वर्तमानकालमें सिद्ध होते हैं और अनागत कालमें ये मोक्ष जावेंगे वह सर्व नव पदोंके ध्यानसेही होंगे नव पदोंके ध्यानसिवाय नहीं ॥ ९३ ॥ एएसिं च पयाणं, पयमेगयरं च परमभत्तीए । आराहिऊण णेगे, संपत्ता तिजयसामित्तं ॥ ९४ ॥ अर्थ - और इन नव पदोंमें एक पदभी परम भक्ति करके आराधन करके अनेकजीव तीनजगत्का स्वामित्व प्राप्त भए है सकल कर्मके क्षय होनेसे तीन भवनका स्वामी भया ॥ ९४ ॥ एएहिं नवपएहिं सिद्धं सिरिसिद्धचक्कमेयं जं । तस्सुद्धारो एसो, पुवायरिएहिं निदिट्ठो ॥ ९५ ॥ अर्थ — इन नवपदोंसे सिद्ध याने निष्पन्न जो यह सिद्धचक्र नामका यन्त्र राजका उद्धार पूर्वाचार्योंने कहा है ॥ ९५ ॥ | गयण मकलियायतं, उट्ठाहसरं सनायविंदुकलं । सपणवबीयाणाहय, मंतसरं सरह पीढंमि ॥ ९६ ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020724
Book TitleShripal Charitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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