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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ - तदनन्तर हर्षित भई धृष्टत्वयुक्त ऐसी तथा छोड़ी है लोकलाज जिसने ऐसी सुरसुंदरी बोली पिताके प्रसादसे जो कोई प्रकारसे मुखसे मांगा हुआही मिले है ॥ ८३ ॥ ता सबकला कुसलो, तरुणो वररूव पुण्ण लावन्नो । एरिसओ होउ वरो, अहवा ताओ च्चिय पमाणं ॥८४॥ अर्थ - तब सर्व कला में कुशल चतुर और यौवन अवस्थामें रहा हुआ प्रधानरूप आकृतिसे पवित्र लावण्य सौंदर्य जिसका ऐसा ये आगे रहा हुआ पुरुष भर्तार होओ अथवा पिता जो देवे वही वर प्रमाण है ॥ ८४ ॥ जेणं ताय तुमं चिय, सेवयजणमण समीहियत्थाणं । पूरणपवणो दीससि, पच्चक्खो कप्प रुत्रखुत ॥ ८५ ॥ अर्थ - अब सुरसुंदरी अपनी इष्टसिद्धिके लिए पिताकी स्तुति करे है हेपिताजी जिसकारणसे आपही सेवक लोगोंके मनोवांछित कार्य करनेमें तत्पर दीखतेहो किसके सदृश साक्षात् कल्पवृक्षके सदृश ॥ ८५ ॥ तो तुट्ठो नरनाहो, दिट्ठिनिवेसेण नायतीइमणे । पभणेइ होउ वच्छे, एस अरिद्मणो वरो तुझ ॥ ८६ ॥ अर्थ-तब राजा सुरसुंदरीका बचन सुननेसे संतुष्टमान भया और बोला, हेवत्से यह अरिदमन कुमार तेरा वर होओ कैसा है राजा कुमर में दृष्टि स्थापनेसे जाना है कुमरीका मन जिसने ॥ ८६ ॥ | तोसयल सभालोओ, पभणइ नरनाह एस संजोगो । अइ सोहणोहिवल्ली, पूगतरूणं व नियंतं ॥ ८७ ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020724
Book TitleShripal Charitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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