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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपाद चरितम् ॥ १२ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ - उसके अनन्तर सम्पूर्ण सभाके लोग बोले हे महाराज यह इन्होंका संयोग निःसंदेह अत्यन्त शोभनीय भया है किसके जैसा नागरवेल और सुपारीके वृक्ष जैसा जैसे नागरवेल सुपारीका संयोग है वैसा इन्होका भी संयोग शोभन है ॥ ८७ ॥ अह मयणसुंदरी विहु, रन्ना नेहेण पुच्छिया वच्छे । केरिसओ तुझवरो, कीरउ मह कहसु अविलंब ॥८८॥ अर्थ - अथ नाम सुरसुंदरीके वर प्राप्ति के अनन्तर राजाने मदनसुंदरीसे भी स्नेहसे पूछा है पुत्रि तेंभिक है तेरे कैसा भर्तार मैं करूं मेरे आगे विलंबरहित जैसा होवे वैसा कहो ॥ ८८ ॥ | सा पुण जिणवयणवियारसार, संजणिय निम्मल विवेया । लज्जा गुणिक्कसजा, अहोमुही जान जंपेइ ८९ अर्थ - जिन वचनोंके विचारसारसे उत्पन्न भया है निर्मल विवेक जिसको ऐसी इसवास्ते लज्जा गुणोंमें एक सज्ज नाम तत्पर ऐसी मदनसुंदरी नींचा किया है मुख जिसने ऐसी जितने नहीं बोले ॥ ८९ ॥ ताव नरिदेण पुणो, पुट्ठा साभणइ ईसिहसिऊणं । ताय विवेय समेओ, संपुच्छसि तंसि किमजुत्तं ॥ ९० ॥ अर्थ - उतने राजाने और पूछा तब मदनसुंदरी थोड़ी हसके राजासे कहने लगी हे पिताजी आप विवेकसहित हो यह अयुक्त मेरेसें क्या पूछो हो विवेकयुक्त आपको मेरेको यह पूछना अयुक्त है यह भाव है ॥ ९० ॥ जेण कुल बालियाओ, नकहंति हवेउ एस मज्झ वरो। जो किर पिऊहिं दिन्नो, सो चेव पमाणयत्ति ९१ For Private and Personal Use Only भाषाटीकासहितम्. ॥ १२ ॥
SR No.020724
Book TitleShripal Charitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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