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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्रमण-सूत्र है ? जिस क्रिया में पाप लगता हो, वह तो साधु को नहीं करनी चाहिए ? ___ उत्तर में निवेदन है कि जैनधर्म उपयोग का धर्म है, यतना का धर्म है। यहाँ गमनागमन, भोजन, भाषण आदि के रूप में जो भी क्रियाएँ हैं, उन सब में पाप बताया है। परन्तु वह, प्रमाद अवस्था में होता है । अप्रमत्त दशा में रहते हुए कोई पाप नहीं है । साधक यदि असावधान है, विवेकहीन है, राग-द्वेष की परिणति में फँसा है, यतना का कुछ भी विचार नहीं रखता है, तो वह पाप-कर्म का बन्ध करता है । वह कोई क्रिया करे या न करे, उसको पाप लगता ही रहता है । कर्तव्य के प्रति उपेक्षा, अविवेक और प्रमाद अपने आप में स्वयं एक पाप है । और यह पाप ही है, जो क्रियाओं को पाप के रंग से रँगता है । यदि साधक अप्रमत्त है, विवेकशील है, यतना का विचार रखता है, संयम की साधना में सतत जागृत रहता है, वह यदि कोई प्रवृत्ति करता भी है तो वह जागृत रहकर करता है, अतः उसे किसी प्रकार का पाप नहीं लगता है। पाप या दोष क्रियाओं में नहीं, क्रियाओं की पृष्ठ भूमि में रहने वाले काषायिक भाव में है, प्रमाद-भाव में है । इसके लिए मैं कुछ प्राचीन उद्धरण आपके सामने रख रहा हूँ। .. भगवान् महावीर कहते हैं'पमायं कम्ममाहंसु अप्पमायं तहावरं ।' (सूत्रकृतांग-सूत्र ८ । ३) -~-प्रमाद कम है और अप्रमाद अकम है, कर्म का अभाव है। 'जयं चरे जयं चिडे, जयमासे जयं सए । For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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