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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ऐयापथिक-सूत्र ५६ जयं भुजंतो भासंतो, पाव-कम्मं न बंधइ ॥ (दशवै० ४।८) -जो साधक यतना से चलता है, यतना से खड़ा होता है, यतना से बैठता है, यतना से सोता है, यतना से भोजन करता है और बोलता है, वह पापकर्म का बन्ध नहीं करता है । श्राचार्य शीलांक कहते हैं:'अथोपयुक्तो याति ततोऽ प्रमत्तत्वाद् अबन्धक एव ।' . ( सूत्रकृतांगटीका १ । १।२ । २६) -जब साधक उपयोगपूर्वक चलता है, तब वह चलता हुआ भी अप्रमत्त भाव में है, अतः अबन्धक होता है। जैन सस्कृति में साधु के गमनागमन के लिए ईर्यासमिति शब्द का प्रयोग किया गया है, जिसका अर्थ है गमनागमन में सम्यक् प्रवृत्ति । यह समिति सवर है, पापाश्रव को रोकने वाली है, कर्मों की निर्जरा का कारण है, अपने आप में धर्म है। यहाँ निवृत्तिमूलक प्रवृत्ति होती है, अतः असक्रिया का त्याग और सत् क्रिया का स्वीकार ही जैनधर्म की प्रवृत्ति का प्राण है । ___जैन-धर्म के प्राचार्यों का हजार-हजार वर्षों से सुनाया जानेवाला यह अमर स्वर क्या कभी मिथ्या ठहराया जा सकता है ? और क्या इसके रहते हुए जैन धर्म को अव्यवहार्य और उपहासास्पद बताया जा सकता है ? क्या अब भी विवेकानन्दजी का यह कहना सत्य है कि 'जैन धर्म के लोग प्रवृत्ति से इतना घबराते हैं, कि लंबे-लंबे उपवासों के द्वारा अपना शरीर त्याग देते हैं ?' यदि ये सब लोग जैन धर्म की यतना को समझते होते, अप्रमत्त भाव के विचार पर लक्ष्य देते होते तो क्या उपयुक्त भ्रान्त-भावना व्यक्त करते ? जैन-धर्म का हृदय यतना है । For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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