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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ऐयापथिक-सूत्र वे भीतर के बादं भिक्षा के लिए जाते थे और इधर उधर विहार करते थे । साधक के लिए यह असभव है कि वह सारा जीवन निराहार रहकर एक स्थान में निस्पन्द पड़ा हुआ प्रतिपल मृत्यु की प्रतीक्षा करता रहे । और इस प्रकार का निष्क्रिय एवं निर्माल्य-जीवन यापन करना, स्वयं अपने आप में कोई साधना भी तो नहीं है । तीर्थकर अरिहन्त आध्यात्मिक साधना के ऊँचे से ऊँचे शिखर पर पहुँचे हुए भी, केवल ज्ञान केवल दर्शन पाकर कृतकृत्य होते हुए भी, जनकल्याण के लिए कितना भ्रमण करते हैं ? गाँव-गाँव और नगर-नगर घूम-घूम कर किस प्रकार सत्य की दुन्दुभि बजाते हैं ? श्री राहुल सांकृत्यायन भगवान महावीर को भारतवर्ष का सर्वश्रेष्ठ घुमक्कड़राज कहते हैं। घुमक्कड़राज, अर्थात् धुमक्कड़ों का, घूमने वालों का राजा । बहुत दूर न जाकर संक्षेप में कहूँ कि जब तक जीवन है, गमनागमन के विना कैसे रहा जा सकता है ? गृहस्थ हो, साधु हो, तीर्थकर हो, सबको गमनागमन करना ही होता है । गृहस्थ तो घर बाँधकर बैठा है, वह तो एक गाँव में बँधकर बैठा भी रहे । परन्तु साधु के लिए तो चार मास वर्षा वास को छोड़कर शेष आठ महीने का काल विहार-काल ही माना गया है । कुछ विशेष कारण हो जाय तो बात दूसरी है, अन्यथा सशक्त साधु के लिए शेष काल में विहार करते रहना आवश्यक है। यदि प्रमादयश विहार न करे तो प्रायश्चित का भागी होता है। जैन धर्म में साधु के लिए मठ बाँधकर बैठ जाना, सर्वथा निषिद्ध है। उसके लिए तो घुमक्कड़ी भी साधना का एक अंग है, अनासक्त जीवन की एक कसौटी है। वह साधु ही क्या जो घुमक्कड़ न हो | धुमक्कड़ साधु का जीवन निमल रहता है, विकारों में नहीं उलझता है। उसे गंगा की धार की तरह बहते ही रहना चाहिए । बहती धार ही निर्मल रह सकती है । कहा है-'साधू तो रमता भला, पड़ा गधीला होय ।' अब प्रश्न यह है कि गमनागमन की क्रिया में तो पाप लगता है, अतः साधु के लिए गमनागमन, विहारचर्या कैसे विहित हो सकती For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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