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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रतिज्ञा सूत्र २३५ यह तो केवलिगम्य है। हाँ, अभी तक और कोई समाधान हमारे देखने में नहीं आया है। अविसन्धि अविमधि का अर्थ है-सन्धि से रहित । सन्धि, बीच के अन्तर को कहते हैं । अतः फलितार्थ यह हुया कि जिन शासन अनन्तकाल से निरन्तर अव्यवच्छिन्न चला या रहा है । भरतादि क्षेत्र में, किसी काल विशेष में नहीं भी होता है, परन्तु महा विदेह क्षेत्र में तो सदा सर्वदा अव्यवच्छिन्न बना रहता है । काल की सीमाएँ जैनधर्म की प्रगति को अवरुद्ध नहीं कर सकतीं। वह धर्म ही क्या, जो काल के घेरे में या जाय ! जिन धर्म, निज धम है-अात्मा का धम है । अतः वह तीन काल और तीन लोक में कहीं न कहीं सदा सर्वदा मिलेगा ही। जैनधम ने देवलोक में भी सम्यक्त्व का होना स्वीकार किया है और नरक में भी। पशु-पन्नी तथा पृथ्वी, जल आदि में भी सम्यग दशन का प्रकाश मिल जाता है । अतः किसी क्षेत्रविशेष एवं काल विशेष में जैनधर्म के न होने का जो उल्लेख किया है, वह चारित्ररूप धर्म का है, सम्यक्त्व धर्म का नहीं। सम्यक्त्व धम तो प्रायः सर्वत्र ही अव्यवच्छिन्न रहता है । हाँ चारित्र धम की अव्यवच्छिन्नता भी महाविदेह की दृष्टि से सिद्ध हो जाती है। सर्व दुःख प्रहीण-मार्ग धम का अन्तिम विशेषण सर्वदुःख प्रहीणमार्ग है । उक्त विशेषण में धम की महिमा का विराट सागर छुपा हुआ है । संसार का प्रत्येक प्राणी दुःख से व्याकुल है, क्लेश से सतप्त है । वह अपने लिए सुख चाहता है, ग्रानन्द चाहता है। प्रानन्द भी वह, जो कभी दुःख से सभिन्न = स्पृष्ट न हो । दुःखास भिन्नत्व ही सुख की विशेषता है । परन्तु सौंसार का कोई भी ऐसा सुख नहीं है, जो दुःख से असं भिन्न हो । यहाँ सुख से पहले दुःख है, सुख के बाद दुःख है, और सुख की विद्यमानता में भी दुःख है । एक दुःख का अन्त होता नहीं है और For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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