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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २३६ श्रमण-सूत्र दूसरा दुःख सामने या उपस्थित होता है। एक इच्छा की पूर्ति होती नहीं है, और दूसरी अनेक इच्छाएं मन में उछल कूद मचाने लगती हैं । सांसारिक सुख इच्छा की पूर्ति में होता है, और सबकी सत्र इच्छाएँ पूण कहाँ होती हैं ? अतः संसार में एक-दो इच्छायों की पूर्ति के सुख की अपेक्षा अनेकानेक इच्छाओं की अपूति का दुःख ही अधिक होता है । दुःखों का सर्वथा अभाव तो तब हो, जब कोई इच्छा ही मन में न हो । अोर यह इच्छाओं का सर्वथा अभाव, फलतः दुःखों का सर्वथा अभाव मोक्ष में ही हो सकता है, अन्यत्र नहीं । और वह मोक्ष, सम्यगदर्शनादि रत्नत्रयरूप धर्म की साधना से ही प्राप्त हो सकता है । इसीलिए श्राचार्य हरिभद्र लिखते हैं—“सर्वदुःख प्रहोणमार्ग-सबदुःख प्रहीणो मोक्षस्त कारणमित्यर्थः ।" सिज्झति धम की आराधना करने वाले ही सिद्ध होते हैं । सिद्धि है भी क्या वस्तु ? अाराधना अर्थात् साधना की पूर्णाहुति का नाम ही सिद्धि है। जैन धम में श्रात्मा के अनन्त गुणों का पूर्ण विकास हो जाना ही सिद्धत्व माना गया है । 'सिझति-सिद्धा भवन्ति, परिनिष्ठितार्था भवन्ति ।' -प्राचार्य जिनदास महत्तर । जैन धम में मोक्षके लिए सिद्ध शब्द का प्रयोग अत्यन्त युक्तिसंगत किया है । बोद्ध दार्शनिक, जहाँ मोक्षका अर्थ दीन निर्वाण के समान सर्वथा अभावात्मक स्थिति करते हैं, वहाँ जैन धम सिद्ध शब्द के द्वारा अनन्त-अनन्त श्रात्मगुणों की प्राप्ति को मोक्ष कहता है । हमारे यहाँ सिद्ध का अर्थ ही पूर्ण है । अतः अनात्मवादी बौद्ध दर्शन की मुक्ति का यह सिद्ध शब्द परिहार करता है, और उन दार्शनिकों की मुक्ति का भी परिहार करता है, जो अपूर्ण दशा में ही मोक्ष होना स्वीकार करते हैं । ईश्वर या अन्य किसी महा शक्ति के द्वारा अपूर्ण व्यक्तियों को मोक्ष देने की कथाएँ वैदिक पुराणों में बाहुल्येन वर्णित हैं । परन्तु जैन धम इन बातों पर विश्वास नहीं करता । वह तो अपूर्ण अवस्था को ससार ही कहता है, For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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