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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २३४ श्रमण-सूत्र दिशं नकाश्चिद् विदिशं न काश्चित् , क्लेशक्षयात् केवलमेति शान्तिम्॥ (सौन्दरानन्द १६, २८-२६) पाठक विचार कर सकते हैं-यह क्या निर्वाण हुया ? क्या अपनी सत्ता को समाप्त करने के लिए ही यह साधना का मार्ग है। क्या अपने संहार के लिए ही इतने विशाल उग्र तपश्चरण किए जाते हैं ? महाकवि अश्वघोष के शब्दों में क्या शान्ति का यही रहस्य है ? बौद्ध धर्म का क्षणिकवाद साधना की मूल भावना को स्पर्श नहीं कर सकता ! साधक के मन का समाधान जैन निर्वाण के द्वारा ही हो सकता है, अन्यत्र नहीं। अवितथ अवितथ का अर्थ सत्य है । वितथ झूट को कहते हैं, जो वितथ न हो वह अवितथ अर्थात् सत्य होता है। इसीलिए प्राचार्य हरिभद्र ने सीधा ही अर्थ कर दिया है-'पवितथं = सत्यम् ।' परन्तु प्रश्न है कि जब अवितथ का अर्थ भी सत्य ही है तो फिर पुनरुक्ति क्यों की गयी ? सत्य का उल्लेख तो पहले भी हो चुका है। प्रश्न प्रस गोचित है। परन्तु जरा गभीरता से मनन करेंगे तो प्रश्न के लिए अवकाश न रहेगा। प्रथम सत्य शब्द, सत्य का विधानात्मक उल्लेग्व करता है। जब कि दूसरा वितथ शब्द, निषेधात्मक पद्धति से सत्य की अोर सकेत करता है । सत्य है, इसका अर्थ यह भी हो सकता है कि संभव है, कुछ अंश सत्य हो । परन्तु जब यह कहते हैं कि वह अवितथ है, असत्य नहीं है तो असत्य का सर्वथा परिहार हो जाता है, पूर्ण यथार्थ सत्य का स्पष्टीकरण हो जाता है । इस स्थिति में दोनों शब्दों का यदि संयुक्त अर्थ करें तो यह होता है कि 'जिन शासन सत्य है, असत्य नहीं है ।' उत्तर अंश के द्वारा पूर्व अंश का समर्थन होता है, दृढत्व होता है । हम तो अभी इतना ही समझे हैं। वास्तविक हिस्य क्या है, For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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