SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 458
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्रमण-सूत्र (४) पिहित-सचित्त से ढका हुअा आहार लेना। (५) संहृत-पात्र में पहले से रक्खे हुए अकल्पनीय पदार्थ को निकाल कर उसी पात्र से देना । (६) दायक-शराबी, गर्भिणी आदि अनधिकारी से लेना। (७) उन्मिश्र-सचित्त से मिश्रित आहार लेना। (८) अपरिणत-पूरे तौर पर पके विना शाकादि लेना । (१) लिप्त-दही, घृत अादि से लिप्त होनारले पात्र या हाथ से आहार लेना । पहले या पीछे धोने के कारण पुरः कर्म तथा पश्चात्कर्म दोष होता है । (१०) छर्दित-छींटे नीचे पड़ रहे हों, ऐसा आहार लेना । गृहस्थ तथा साधु दोनों के निमित्त से लगने वाले दोष, ग्रहणेषणा के दोष कहलाते हैं। ग्रासैषणा के ५ दोष संजोयणाऽपमाणे, इंगाले धूमऽकारण चैव । (१) संयोजना-रसलोलुपता के कारण दूध शक्कर आदि द्रव्यों को परस्पर मिलाना । (२) अप्रमाण-प्रमाण से अधिक भोजन करना । (३) अङ्गार-सुस्वादु भोजन को प्रशंसा करते हुए खाना । यह दोष चारित्र को जलाकर कोयलास्वरूप निस्तेज बना देता है, अतः अंगार कहलाता है। (४) धूम-नीरस अाहार को निन्दा करते हुए खाना । (५) अकारण-.-याहार करने के छः कारणों के सिवा बलवृद्धि श्रादि के लिए भोजन करना । ये दोष साधु-मण्डली में बैठकर भोजन करते हुए लगते हैं, अतः ग्रासैषणा दोष कहलाते हैं। For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy