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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir काल-प्रतिलेखना सूत्र श्रावश्यक है । जत्तराध्ययन सूत्र के २६ वें अध्ययन में काल-प्रतिलेखना के सम्बन्ध में एक बहुत ही सुन्दर प्रश्नोत्तर है :कालपडिलेहणयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? कालपडिलेहणयाए णं नाणावरणिज्जं कम्म. खवेइ । "भगवन् ! काल की प्रतिलेखना से क्या फल होता है ?" "काल की प्रतिलेखना से ज्ञानावरण कम का क्षय होता है ।" : उपयुक्त सूत्र कालप्रतिलेखना का है। सूत्रकार ने अपनी गंभीर भाषा में कालोचित क्रिया का महत्त्व बहुत ही सुन्दर ढंग से वर्णन किया है । अागम में कथन है कि दिन के पूर्वाह्न तथा अपराह्न में तथैव रात्रि के पूर्व भाग तथा अपर भाग में इस प्रकार दिन और रात्रि के चारों कालों में, नियमित स्वाध्याय करनी चाहिए । इसी प्रकार प्रातःकाल और सायं काल दिन के दोनों कालों में नियमित रूप से वस्त्र पात्र आदि की प्रतिलेखना भी आवश्यक है। यदि आलस्यवश उक्त दोनों आवश्यक कर्तव्यों में भूल हो जाय तो उसकी शुद्धि के लिए प्रतिक्रमण करने का विधान है। स्वाध्याय .. भारतीय संस्कृति में स्वाध्याय का स्थान बहुत ऊँचा एवं पवित्र माना गया है। हमारे पूर्वजों ने जो भी ज्ञानराशि एकत्रित की है और जिसे देखकर आज समस्त संसार चमत्कृत है, वह स्वाध्याय के द्वारा ही प्राप्त हुई थी। भारत जब तक स्वाध्याय की ओर से उदासीन न हुआ सब तक वह ज्ञान के दिव्य प्रकाश से जगमगाता रहा । - पूर्वकाल में जब भारतीय विद्यार्थी गुरुकुल से शिक्षा समाप्त कर विदा होता था तो उस समय पाशीर्वाद के रूप में प्राचार्य की ओर से यही महावाक्य मिलता था कि-'स्वाध्यायान्मा प्रमदः।' इसका अर्थ है-'वत्स ! भूलकर भी स्वाध्याय करने में प्रमाद न करना ।' कितना सुन्दर उपदेश है ? स्वाध्याय के द्वारा ही हित और अहित का ज्ञान होता For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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