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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दुर्जन वचन चपेटां निष्ठुर कटुकं सहन्ते सत्पुरुषाः । कर्ममल नाशनार्थ भावेन च निर्ममा श्रमणाः ।। अर्थ- सज्जन मुनीश्वर निर्ममत्व होते हुए दुर्जनों के निर्दय और कटुक बचन रूपी चपेटौ को कर्म रूपी मल के नाशने के अर्थ सहते हैं। पावं खबइ अससं खमाइ परिमण्डि ओय मुणिप्पवरो। खेयर अपर णराणं पसंसणीओ धुवं होई ॥ १०८॥ पापं क्षिपति अशेष क्षमया परिमण्डितश्च मुनिप्रवरः । खेचरामरनराणां प्रशंसनीयो ध्रुवं भवति ॥ अर्थ-जो मुनिवर क्षमा गुण कर भूषित है वह समस्त पाप प्रकृतियों को क्षय करे है और विद्याधर देव तथा मनुष्यों कर अवश्य प्रशंसनीय होता है। इय णाऊण खपागुण खमेहि तिीवहेण सयल जीवाणं । चिर संचिय कोहसिही वरखमसलिलेणसिंचेह ॥१०॥ इति ज्ञात्वा क्षमागुण क्षमस्व त्रिविधेन सकलजीवान् । चिर संचित क्रोध शिखिनं वरक्षमा सलिलेन सिञ्च ।। अर्थ-हे क्षमा धारक ऐसा जान कर मन बचन काय से समस्त जीवों पर क्षमा करो, और बहुत काल से एकट्ठी हुई क्रोध रूप आनि को उत्तम क्षमा रूप जल से बुझाओ। दिक्खा कालाईयं भावहि अवियार दंसणविसुद्धो। उत्तम वोहिणिमित्तं असार संसार मुणि ऊण ॥ ११ ॥ दीक्षाकालादीयं भावय अविचार दर्शनविशुद्धः । उत्तम वोधि निमित्तम् असार संसारं ज्ञात्वा ॥ अर्थ-हे निर्विधेकी तुम सम्यग्दर्शन सहित हुए संसार की असारता को जान कर दीक्षा काल आदि में हुए विराग परिणामों को उत्तम बोधि की प्राप्ति के निमित्त भावो । भावार्थ मनुष्य दीक्षा For Private And Personal Use Only
SR No.020699
Book TitleShatpahud Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundakundacharya
PublisherBabu Surajbhan Vakil
Publication Year1910
Total Pages146
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P001
File Size7 MB
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