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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ८९ ) अथे - कन्द मूल बीज फूल पत्र इत्यादि सचित्त वस्तुओं को मान और गर्व से खाकर तुम अनन्त संसार में भ्रम हो । विणयं पंचपयारं पालहि मणवयण कायजोगेण । अविणय णरासुविहियं तत्तोमुत्तिं णपार्वति ॥२० विनयं पञ्चप्रकारे पालय मनोवचन काययोगेन ! अविनतनरा सुविहितां ततोमुक्तिं न प्राप्नोति ॥ अर्थ-- तुम मन वचन काय से पांच प्रकार के विनय को बा रण करो क्योंकि अविनयी मनुष्य तीर्थंकर पद और मुक्ति को नहीं पाता है ! णिय सत्तिए महाजस मत्तिरागेण णिच्च कालम्मि । तं कुण जिणभत्तिपरं विज्जावश्चं दसवियष्णं ॥ १०५ ॥ निजशक्त्यामहायशः भक्तिरागेण नित्यकाले । त्वं कुरु जिनभक्तिपरं वैयावृत्यं दशविकल्पम् || अर्थ - भो महाशय ? तुम सर्वदा अपनी शक्ति के अनुसार भक्ति भाव के राग सहित दश प्रकार की वैयावृत को पालो जिस से तुम जिनेन्द्र की भक्ति में तत्पर होओ। आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शेभ्य, गलान, गण, कुल, संघ और साधु यह दश भेद मुनियों के है इनकी वैयावृत्त करने से वैय्यावृत्त के दस भेद हैं । जं किञ्चिकयं दो मणवयकाएहि असुह भावेण । तंगरह गुरु सयासंगारवमायं च मोत्तूण ॥ १०६ ॥ यः कश्चित् दोषः मनवचनकायैः अशुभ भावेन । तं गर्ह गुरुका गारवं मायां च मुक्त्वा ॥ अर्थ -- मन बचन काय से वा अशुभ परिणामों से जो कोई दोष किया गया हो तिसे गुरु के समीप बड़प्पन और मायाचार को छोड़ कर कहै अर्थात् किये हुए दोषों की निन्दा करै । दुज्जण वयण च डकं निठुर कडुयं सहति सप्पुरिसा | कम्ममलणासणद्वं भाषेणय णिम्ममा सवणा || ॥ १०७ ॥ १२ For Private And Personal Use Only
SR No.020699
Book TitleShatpahud Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundakundacharya
PublisherBabu Surajbhan Vakil
Publication Year1910
Total Pages146
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P001
File Size7 MB
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