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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ९१ ) के ग्रहण समय तथा रोग और मरण के समय संसार देह भोगों से अत्यन्त वैरागी होता है उन वैराग्य परिणामों को सदा चितवन रखना चाहिये | सेवहि चउहिलिङ्गं अन्भन्तरं लिङ्ग सुद्धिमावण्णो । वाहिर लिङ्गमज्जं होइ फुडं भावरहियाणं ॥ १११ ॥ सेवस्व चतुर्विधं लिङ्गम् अभ्यन्तर लिङ्गगुद्धिमापन्नः । वाह्यलिङ्गमकार्यं भवति स्फुटं भावरहितानां || --- अर्थ- -भो मुनि सत्तम ? अन्तरङ्ग लिङ्ग शुद्धि को प्राप्त हुए तुम चार प्रकार के लिङ्ग को धारण करो, क्योंकि भाव रहितों को वाह्य लिङ्क अकार्य कारी है । अहार भयपरिग्गह मेहुणसण्णाही मोहि ओसि तुमं । भमिओ संसार वणे अणाइ कालं अणप्प वसो ॥। ११२ ।। आहार भयपरिग्रह मैथुन संज्ञामिः मोहितोसि त्वम् । भ्रमितः संसार वने अनादिकालमनात्म वशः ॥ अर्थ-भो मुनिवर ! तुम आहार भय मैथुन और परिग्रह इन संज्ञाओं में मोहित और पराधीन हुए अनादि काल से संसार बन में भ्रम हो सो स्मरण करो । वाहिरसयणातावण तरुमृळाईणि उत्तर गुणाणि | पाला भावविशुद्ध पयालाभं ण ई हन्तो ।। ११३ ॥ वहिः शयनातापन तरुमूलादीन् उत्तरगुणान् । पालय भावविशुद्धः प्रजालाभं न ईहमानः || अर्थ - भो साधो ! तुम भाव शुद्ध होकर पूजा, प्रतिष्ठा, लाभ, आदि को न चाहते हुए चौड़े मैदान में सोना बैठना आतापन योग वृक्ष की जड़ में तिष्ठना आदि उत्तर गुणों को पालो । भावार्थ - शीत काल में नदी सरोवरों के किनारे ग्रीष्म ऋतु में आतापन योग अर्थात् पर्वतों के शिखरों पर ध्यान करना और वर्षा काल में वृक्षों के नीचे तिष्ठना, तीनों उत्तर गुण हैं। For Private And Personal Use Only
SR No.020699
Book TitleShatpahud Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundakundacharya
PublisherBabu Surajbhan Vakil
Publication Year1910
Total Pages146
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P001
File Size7 MB
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