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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir kxxxxxxXXXXXXXXXXXXXXXXKKKK Xxxxxx विवक्षावडे दीर्घपणु भाववा योग्य छे. एवी रीते अल्प काल पर्यंत पण कोईएक व्यक्ति गर्दा करे छ, अथवा यावत् दीर्घ काल सुधी ज, तथा इस्त्र (अल्प) काल पर्यंत ज यावत् (एक व्यक्ति गर्दा करे छे ) कारण के अपि शब्द निश्चय अर्थमां छे. अथवा एक ज व्यक्ति के प्रकारे कालभेदवडे भावभेदथी गर्दी करे छे अथवा घणा के थोडा काल पर्यंत ज गर्दा करे छे. (सू०६१). निंदा करवा योग्य भूतकाल संबंधी कोने विषे गर्दा थाय छे अने भविष्यकालमां तो प्रत्याख्यान थाय छे. कयुं छे के-'अईयं निंदामि पडुप्पन्नं संवरेमि अणागयं पच्चक्खामी'ति-अतीतकाल संबंधी पापने हुँ निंदु छु, वर्तमानकालीन पापने संबकै छु ( अटकावू छु ) अने अनागतकालीन पापना पच्चक्खाण करुं छु. आ कारणथी हवे प्रत्याख्यान कहे छे दुविहे पञ्चक्खाणे पं० २०-मणसा वेगे पञ्चक्खाति वयसा वेगे पच्चक्खाति, अहवा पच्चक्खाणे दुविहे पं० २०-दीहं वेगे अद्धं पच्चक्खाति रहस्सं वेगे अद्धं पच्चक्खाति । सू० ६२, दोहिं ठाणेहिं अणगारे संपन्ने अणादीयं अणवयग्गं दीहमद्धं चाउरंतसंसारकंतारं वीतिवतेज्जा, तंजहा-विजाए चेव चरणेण चेव । सु० ६३ मूलार्थ:-चे प्रकारे पच्चक्खाण कहेल छे, ते आ प्रमाणे-एक मनवडे पण पच्चक्खाण करे छे, एक वचनवडे पण पच्चक्खाण * करे छे. अथवा पच्चक्खाण बे प्रकारे कहेल छे, ते आ प्रमाणे-एक दीर्घ (लांबा) काल पर्यंत पण पञ्चक्खाण करे छे, एक अल्प KOKKKKKXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX For Private and Personal Use Only
SR No.020691
Book TitleSthanang Sutram Sanuvadasya
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorAbhaydevsuri
PublisherAbhaydevsuri
Publication Year
Total Pages377
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size19 MB
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