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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir और स्याद्वादमें जो कुशल हैं उनको आवश्यकता नहीं है । ऐसे ही अनेकान्तखरूप अर्थक बोधनार्थ स्यात् इस निपातका भी भङ्गोंमें प्रयोग किया है। और स्याद्वाद न्यायमें कुशल विद्वानोंके अर्थ तो 'अस्तिघटः' इतना ही प्रयोग पर्याप्त है, क्योंकि उनको तो शब्दकी शक्ति तथा प्रमाणादिद्वारा अनेकान्तरूप अर्थका बोध हो ही जावेगा, इस प्रकार सिद्धान्त किया है, और इसी प्रसङ्गमें निपातोंका वाचकत्व और द्योतकत्व दोनों पक्ष शास्त्रसम्मत हैं यह भी दर्शाया है । तथा जो बौद्धमतावलम्बी अनेकान्त पक्षको छोड़के अन्य व्यावृत्ति ही शब्दशक्ति मानते हैं, उनका खंडन भी किया है । अर्थात् अन्यके निषेधसे अतिरिक्त सर्वत्र शब्दजन्य ज्ञान घटादि पदसे विधिमुखसे होता है, न कि व्यावृत्ति रूपसे. इस हेतुसे तथा प्रकारान्तरसे भी बौद्धमतकी असंगति दर्शाई है। इसी प्रकार सप्तभङ्गोंके अर्थ अनेक तर्क वितकोसे वर्णन किया है। जिसको हमने संस्कृत भूमिकामें स्पष्ट किया है, यहां पुनः लिखनेकी आवश्यकता नहीं है। इस ग्रन्थको जो आरंभसे अन्ततक मनोयोगसे पढेंगे, उनको पूर्ण रीतिसे विदित होगा, क्योंकि सब विषय शृंखलाबद्ध है। मुझे इस ग्रन्थका भाषानुवाद करनेकी आज्ञा रायचन्द्रशास्त्रमाला के प्रबन्धकर्ताद्वारा प्राप्त हुई। सर्वशुभचिन्तक: आचार्य्यठाकुरप्रसादः। For Private And Personal Use Only
SR No.020654
Book TitleSaptabhangi Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimaldas, Pandit Thakurprasad Sharma
PublisherNirnaysagar Yantralaya Mumbai
Publication Year
Total Pages98
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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