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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री परमात्मने नमः उपोद्घातः। विदित हो, कि अधिक पांडित्य परिपूर्ण जैन ग्रन्थोंमेंसे यह सप्तभङ्गीतरङ्गिणी नामक अपूर्व जैनतर्कग्रन्थ है । इस ग्रन्थके प्रणेता वीरग्रामनिवासी श्रीमान् अनन्तदेवस्वामीके प्रिय तथा मुख्य शिष्य महात्मा श्री विमलदास नाम दिगम्बर जैन हैं। तंजा नामक अपने ग्राममें ही इस अनुपम ग्रन्थको रचा है। परन्तु इसका निर्माणकाल निश्चित नहीं होता । यद्यपि ग्रन्थकारने ग्रन्थके अन्तमें स्वयं लिखा है, कि प्लवङ्गनाम संवत्सर-पुष्यनक्षत्र-रविवार-वैशाख-शुद्धाष्टमी को यह ग्रन्थ रचा । परन्तु हमको इससे कौनसे विक्रमीय व ख्रीष्टाब्दमें यह रचा गया सो निश्चय नहीं होता, कदाचित् ज्योतिर्वेत्ता इससे संवत् निकाल लें। यह पण्डितवर कब और किस कुलमें उत्पन्न हुए, यहभी निर्णय नहीं कर सके। इस ग्रन्थमें जैनमतके प्राण वा सर्वस्वभूत जो सप्तभङ्ग हैं, उनका प्रधानरूपसे व्याख्यान किया गया है । और सप्तभङ्गोंकी प्रवृत्तिमें हेतु तत्त्वार्थज्ञानके उपायभूत प्रमाण तथा नयस्वरूप प्रश्नवाक्योंकी सात प्रकारकी प्रवृत्ति दर्शाई गई है। और सात ही प्रकारके प्रश्नवाक्योंके प्रवृत्त होने में सप्तविधसंशय दर्शाये गये हैं । और सप्तप्रकारके संशय होनेमें सम्पूर्ण जगत्के ऐहिक तथा पारलौकिक संशय निश्चय विषयीभूत सप्तविध धर्मोकी प्रवृत्ति दिखाई गई है। वे सप्तविध धर्म ये हैं,:-कथंचित् सल १, कथंचित् असत्व २, क्रमार्पित उभय ३, कथंचित् अवक्तव्य ४, कथंचित् सत्वविशिष्ट अवक्तव्यत्व ५, कथंचित् असत्वविशिष्ट अवक्तव्यत्व ६, और क्रमार्पित उभय विशिष्ट अवक्तव्यत्व ७ । इन सातों धर्मोंके प्रतिपादक जो सप्तवाक्य हैं, उन्हींको सप्तभङ्ग कहते हैं। और सप्तभङ्गोंका समूह वा समाहार जो है, उसीको सप्तभङ्गी कहते हैं। इन भङ्गोंका खरूप ग्रन्थकी टीका तथा संस्कृत उपोद्धात में हम दर्शा चुके हैं, यहां पुनः लिखके पुनरुक्ति वा पाठकोंका समय खोना नहीं चाहते । सातों भङ्गोंका खरूप दर्शाने के पश्चात् ग्रन्थकारके सप्तभङ्गीवाक्यका लक्षण तथा भङ्गोंकी सात ही संख्या हो सक्ती है, उससे न्यूनाधिक नहीं हो सक्ती, यह स्थापित किया है, और इन सप्तभङ्गोंका परस्पर जो भेद है, उसको पूर्णरूपसे दर्शाया है। इसके पश्चात् प्रथम भङ्ग अर्थात् 'स्यादस्त्येव घटः, 'कथंचित् घट है, से लेकर सप्तभङ्ग पर्यन्तकी पूर्ण रूपसे अनेक तर्क वितर्कोसे व्याख्या की है । और इन भङ्गोंसे जिस प्रकार अर्थबोध होता है, वह दर्शाया है । तथा प्रमाणसप्तभङ्गी और नयसप्तभङ्गी इन दो भेदोंसे सप्तभङ्गीके दो भेद दर्शाये हैं । तथा सकलादेश अर्थात् पूर्णरूपसे पदार्थोंका ज्ञापक प्रमाणवाक्य और विकलादेश अर्थात् एकदेश पदार्थ खरूपका बोधक नयवाक्य है, इस प्रकार सकलादेश प्रमाणवाक्य विकलादेश नयवाक्य इत्यादि अनेक विकल्पोंको लिखकर सिद्धान्त दर्शाया है । इसके पश्चात् प्रथम भङ्गमें ( स्यादस्त्येव घटः ) द्रव्यवाचक मानकर घटको विशेष्य और गुणवाचक मानकर अस्तिको विशेषणरूपसे वर्णन किया है । और जैन-सिद्धान्त अनेकान्तवाद है। अनेकान्तवादका यह अर्थ है, कि प्रत्यक्ष, अनुमान तथा आगमसे अविरुद्धरूप एक वस्तुमें अस्तित्व नास्तित्व आदि नानाधर्मों के निरूपणमें जो तत्पर हो,वही जैनमतका अनेकान्तवाद है। तो इस प्रकारके अनेकान्तवादमें खकीयरूप द्रव्यक्षेत्रादिसे तो घटका अस्तित्व है न कि अनिष्ट असत्वादिक; इस वातको द्योतन करनेकेलिये "स्यादास्त्येव घटः" इस प्रथमभङ्गमें 'एव' इस निश्चयबोधक निपातका प्रयोग किया है । इस प्रकारसे एवकारका प्रयोग भङ्गोंमें करना उचित है वा नहीं इस विषयमें ग्रन्थकारने बहुत खंडन मंडन किया है, और अन्तमें यह सिद्धान्त किया है, कि स्याद्वादन्यायमें अकुशल शिष्योंकेअर्थ एवकार शब्दका प्रयोग उचित है For Private And Personal Use Only
SR No.020654
Book TitleSaptabhangi Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimaldas, Pandit Thakurprasad Sharma
PublisherNirnaysagar Yantralaya Mumbai
Publication Year
Total Pages98
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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