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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir करानेवाले होनेसे सर्वथा विकलादेशताके कारण नयवाक्यताकी आपत्ति होगी तथा तृतीय, पञ्चम, षष्ठ और सप्तम 'स्यादस्ति नास्ति च, स्यादस्ति चावक्तव्यश्च, स्यान्नास्ति चावक्तव्यश्च, स्यादस्ति नास्ति चावक्तव्यश्च' भङ्गोंकी क्रमसे सत्त्व असत्त्व, सत्त्वसहित अवक्तव्यत्व असत्त्वसहित अवक्तव्यत्व तथा सत्त्व असत्त्व उभयसहित अवक्तव्यत्व वस्तुके अनेक स्वरूपोंका बोध करानेसे सर्वथा सकलादेशके कारण प्रमाण वाक्यताकी आपत्ति होगी । और तीन ही नय वाक्य हैं और चार ही प्रमाण वाक्य हैं ऐसा नहीं कह सकते । क्योंकि ऐसा कहनेसे अर्थात् प्रथम द्वितीय चतुर्थ भङ्गोंको नयवाक्य और तृतीय पञ्चम षष्ठ तथा सप्तम भङ्गोंको प्रमाण वाक्य माननेसे स्याद्वादके सिद्धान्तका विरोध होगा। यत्तु धर्माविषयकर्मिविषयकबोधजनकवाक्यत्वं सकलादेशत्वं, धर्म्यविषयकधर्मविषयक बोधजनकवाक्यत्वं विकलादेशत्वमिति-तन्न । सत्त्वाद्यन्यतमेनापि धर्मेणाविशेषितस्य धर्मिणइशाब्दबोधविषयत्वासम्भवात् , धर्मवृत्तित्वाविशेषितस्य धर्मस्यापि तथात्वादुक्तलक्षणस्यासम्भवात् । __ और जो कोई कहते हैं कि विशेषणभूतधर्मको छोडके केवलधर्मी विषयक बोधजनक वाक्य सकलादेश और इसके विपरीत धुर्मीको छोडके केवल विशेषणीभूत धर्ममात्र विषयक बोधजनक वाक्य विकलादेश है सो यह भी युक्त नहीं है क्योंकि सत्त्व असत्त्व आदि धर्मों से किसी एक धर्मसे अंविशेषित धर्मीकी शाब्दबोधमें विषयताका ही असंभव है अर्थात् किसी न किसी धर्मसहित ही विशेष्य धर्मीका शाब्दबोधमें भान होता है न कि धर्मरहित धर्मी मात्रका । ऐसे ही धर्मीमें वृत्तितारूपसे विशेषित धर्मका भी शाब्दबोधमें भान नहीं होता इस हेतुसे पूर्वोक्त सकलादेश तथा विकलादेशका लक्षण असंभव है अर्थात् लक्षण असंभव दोषसे ग्रस्त है । न च स्याज्जीव एवेत्यनेन धर्मिमात्रविषयकबोधस्य जननात्स्यादस्त्येवेत्यनेन केवलधर्मविषयकबोधस्य जननाच्च नासम्भव इति वाच्यं; यतो जीवशब्देन जीवत्वरूपधर्मावच्छिन्नस्यैव जीवस्याभिधानम्-नतु केवलधर्मिणः, अस्तिशब्देन च यत्किञ्चिद्धर्मिवृत्तित्वविशेषितस्यैवास्तित्वस्याभिधानम्-न तु केवलधर्मस्येति सर्वानुभवसाक्षिकम् । ___ कदाचित् 'स्याज्जीव एव' कथञ्चित् जीव, इस वाक्यसे केवल जीव धर्मीमात्रका ज्ञान उत्पन्न होनेसे तथा 'स्यादस्त्येव' कथञ्चित् सत्त्व, इस वाक्यसे केवल सत्त्वधर्ममात्रका ज्ञान उत्पन्न होनेसे पूर्वोक्त सकलादेश तथा विकलादेशके लक्षणका संभव है । ऐसा कहो, सो भी नहीं कह सकते । क्योंकि जीव शब्दसे जीवत्वरूप धर्मावच्छिन्न ही जीवका कथन १ केवलनय वाक्यता. २ केवल. ३ प्रसंग. ४ पूर्वोक्त. ५ विशेष्य. ६ धर्ममात्रका बोध करानेवाला. ७ विशेष्यको. ८ धर्ममात्रका बोध करानेवाला. ९ ठीक. १० विशेषणतासे रहित. ११ विशेष्यकी. १२ शब्दजन्य ज्ञान. १३ स्थितित्व. १४ विशेषण न होकर. १५ अन्य वस्तुसे जीवको पृथक् करनेवाले जीवत्वरूप अवच्छेदक धर्मसहित. For Private And Personal Use Only
SR No.020654
Book TitleSaptabhangi Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimaldas, Pandit Thakurprasad Sharma
PublisherNirnaysagar Yantralaya Mumbai
Publication Year
Total Pages98
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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