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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जो कि केवल दधि गुड तथा मरिच तथा लवंगादिकी अपेक्षासे विलक्षण सुस्वाद तथा सुगन्धयुक्त होता है । इसका स्वादु श्रीखण्ड तथा आमकेभी रसमें पूर्वोक्त मरिच आदिके संयोगसे अनुभवसिद्ध है । और उभय विलक्षण ही वस्तुका स्वरूप है यह भी नहीं कह सकते । क्योंकि वस्तुमें कैथञ्चित् सत्त्व और कथञ्चित् असत्त्वकी प्रतीति होती है । जैसे कि दधि शर्करामें मिलित मरिचादि चातुर्जातक दधि गुड शर्करामें मिलित मरिच पत्रक नागकेसर तथा इलायची इन चार द्रव्योंसे उत्पन्न निकमें दधि आदिके भी स्वादुका अनुभव होता है । इसी प्रकार उत्तरके तृतीय चतुर्थ आदि भङ्गोंमेंभी विलक्षण अर्थका अनुभव समझलेना । इससे पृथक् २ स्वभाववाले सातों धर्मोंके सिद्ध होनेसे उन धर्मोके विषयभूत संशय जिज्ञासा आदि क्रमसे सप्त प्रतिवचनरूप सप्तभङ्गी सिद्ध हुई ॥ __ इयं च सप्तभङ्गी द्विविधा-प्रमाणसप्तभङ्गी नयसप्तभङ्गी चेति । किं पुनः प्रमाणवाक्यम् , किं वा नयवाक्यमिति चेत् ? यह सप्तभङ्गी दो प्रकारकी है एक प्रमाण वाक्य सप्तमङ्गी १ दूसरी नय वाक्य सप्तभङ्गी २ । कदाचित् यह कहो कि प्रमाण वाक्य क्या है और नय वाक्य क्या है तो:: अत्र केचित् ;-सकलादेशः प्रमाणवाक्यं, विकलादेशो नयवाक्यम् । अनेकधर्मात्मकवस्तुविषयकबोधजनकवाक्यत्वं सकलादेशत्वं, एकधर्मात्मकवस्तुविषयकबोधजनकवाक्यत्वं विकलादेशत्वम् इत्याहुः। ___ यहांपर कोई ऐसा कहते हैं कि सकलादेश वाक्य प्रमाण वाक्य है तथा विकलादेश नय वाक्य है । इनमेंसे सत्त्व असत्त्व आदि अनेक धर्म स्वरूप जो वस्तु है उस वस्तु विषयक बोधजनक अर्थात् वस्तुके अनेक धर्मोका ज्ञान करानेवाला वाक्य सकलादेश है। और वस्तुके सत्त्व असत्त्व अवक्तव्यत्व आदि धर्मोंमेंसे किसी एक धर्मका ज्ञान उत्पन्न करानेवाला वाक्य विकलादेश हैं। तेषां प्रमाणवाक्यानां नयवाक्यनां च सप्तविधत्वव्याघातः । प्रथमद्वितीय चतुर्थभङ्गानां सत्त्वासत्त्वावक्तव्यत्वरूपैकैकधर्मात्मकवस्तुविषयकबोधजनकानां सर्वथा विकलादेशत्वेन नयवाक्यत्वापत्तेः तृतीयपञ्चमषष्ठसप्तमानामनेकधर्मात्मकवस्तुविषयक बोधजनकानां सदा सकलादेशत्वेन प्रमाणवाक्यतापत्तेः । न च त्रीण्येव नयवाक्यानि चत्वार्येव प्रमाणवाक्यानीति वक्तुं युक्तं सिद्धान्तविरोधात् । . उनके मतमें प्रमाण वाक्योंके तथा नय वाक्योंके भी सप्त भेदका व्याघात होगा. अर्थात् प्रमाण वाक्योंका और नय वाक्योंकाभी सात प्रकारका भेद नहीं सिद्ध होगा । क्योंकि प्रथम द्वितीय तथा चतुर्थ अर्थात् 'स्यादस्ति स्यान्नास्ति स्यादवक्तव्य एव' भङ्गोंकी क्रमसे सत्त्व असत्त्व तथा अवक्तव्यत्वरूप वस्तुके एक एक धर्म विषयक बोध १ शिखिरन. २ सत्त्वासत्त्व. ३ किसी अपेक्षासे ४ पीनेके पदार्थ. ५ सात. ६ उत्तर वचन. ७ सम्पूर्णरूपसे पदार्थों का ज्ञान करानेवाला वाक्य. ८ एक अंशमें पदार्थों का ज्ञान करानेवाला वाक्य, ९धर्मके. For Private And Personal Use Only
SR No.020654
Book TitleSaptabhangi Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimaldas, Pandit Thakurprasad Sharma
PublisherNirnaysagar Yantralaya Mumbai
Publication Year
Total Pages98
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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