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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इस प्रकार है:-जैसे तृतीय चतुर्थ भङ्गोंमें पुनरुक्तिदोषका अभाव उनके विलक्षण बोधजनक होनेसे माना है. ऐसेही विपरीत क्रमसे नास्तित्व अस्तित्व इस पृथक् भङ्गकी तथा नास्तित्वअस्तित्वसहित अवक्तव्यत्वप्रतिपादक इस पृथक् भङ्गकी सिद्धिमें तृतीय 'स्यादस्ति नास्तित्व' तथा सप्तम 'स्यादस्ति नास्ति चावक्तव्यश्च' भङ्गोंके साथ पुनरुक्ति दोष नहीं है । क्योंकि अस्तित्वविशिष्ट नास्तित्वप्रकारकबोधजनकता तृतीय भङ्गमें है । और हमने जो नूतन भङ्ग सिद्ध किया है उसमें अस्तित्वनास्तित्वको विपरीत क्रमसे योजित नास्तित्वसहित अस्तित्वप्रकारकबोधजनकता है इस प्रकार विशेषणविशेष्यभावकी विपरीतता होनेसे दोनों भङ्गोंसे उत्पन्न ज्ञानोंमें समान आकारता नहीं है । ऐसेही सप्तम भङ्ग 'स्यादस्ति नास्ति चावक्तव्यश्च' के साथ विपरीत अर्थात् नास्तित्व अस्तित्व इस उभयसहित अवक्तव्यत्वप्रतिपादक विलक्षण बोधजनक भङ्गकी सिद्धि होनेसे नव भङ्गीकी सिद्धि प्राप्त होती है. न कि सप्तभङ्गी यदि ऐसी शङ्का करो? अत्राहुः । तृतीयेऽस्तित्वनास्तित्वोभयस्य प्रधानत्वम् । चतुर्थे चावक्तव्यत्वरूपधर्मान्तरस्येति न तयोरभेदशंका । अवक्तव्यत्वं चास्तित्वनास्तित्वविलक्षणम् । नहि सत्त्वमेव वस्तुनस्स्वरूपं, स्वरूपादिभिस्सत्त्वस्येव पररूपादिभिरसत्त्वस्यापि प्रतिपत्तेः । नाप्यसत्त्वमेव । स्वरूपादिभिस्सत्त्वस्यापि प्रतीतिसिद्धत्वात् । नापि तदुभयमेव, तदुभयविलक्षणस्यापि जात्यन्तरस्य वस्तुनोनुभूयमानत्वात् । यथा-दधिगुड चातुर्जातकादिद्रव्योद्भवं पानकं हि केवलदधिगुडाद्यपेक्षया जात्यन्तरत्वेन पानकमिदं सुस्वादुसुरभीति प्रतीयते । न चोभयविलक्षणत्वमेव वस्तुनस्स्वरूपमिति वाच्यम्; वस्तुनि कथञ्चित्सत्त्वस्य कथञ्चिदसत्त्वस्य च प्रतीतेः । दधिगुडचातुर्जातकाद्युद्भवे पानके दध्यादिप्रतिपत्तिवत् । एवमुत्तरत्रापि बोध्यम् । तथा च विविक्तस्वभावानां सप्तधर्माणां सिद्धेस्तद्विषयसंशयजिज्ञासादिक्रमेण सप्तप्रतिवचनरूपा सप्तभङ्गी सिद्धेति ॥ तो यहांपर उत्तर कहते हैं:-र्तृतीय भङ्गमें अस्तित्व नास्तित्व इस उभयकी प्रधानता है । और चतुर्थ भङ्गमें अवक्तव्यत्वरूप पृथक् धर्मकी प्रधानता है. इस लिये इन दोनोंके अभेदकी शङ्का नहीं हो सकती क्योंकि अवक्तव्यत्वरूप धर्म अस्ति नास्तिसे विलक्षण पदार्थ है। सत्त्वमात्रही वस्तुका स्वरूप नहीं है. क्योंकि जैसे स्वरूप आदिसे वस्तुका सत्त्व अनुभव सिद्ध है ऐसेही पररूप आदिसे असत्त्वभी अनुभवसिद्ध है और केवल असत्त्वभी वस्तुका स्वरूप नहीं है क्योंकि स्वकीयरूप आदिसे उसके सत्त्वकीभी प्रतीति सिद्ध है । और सत्त्व असत्त्व एतत् उभयभी वस्तुका स्वरूप नहीं है. क्योंकि उभयरूपसे विलक्षण अन्य जातीय भी वस्तुका स्वरूप अनुभवसिद्ध है । जैसे दधि शर्करामें मरिच इलायची नागकेसर तथा लवंगके संयोगसे द्रव्यसे एक अपूर्व भिन्न जातिका पानक रस उत्पन्न होता है ____१ ज्ञानके उत्पन्न करनेकी शक्ति. २ उलटापन. ३ तृतीय तथा इस नूतन. ४ सादृश्य. ५ स्यादस्ति नास्ति च. ६ स्यादवक्तव्य एव. ७ अपूर्व. ८ सत्ता. ९ अन्यरूप. १० अपने. ११ अनुभव. १२ अपूर्व. For Private And Personal Use Only
SR No.020654
Book TitleSaptabhangi Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimaldas, Pandit Thakurprasad Sharma
PublisherNirnaysagar Yantralaya Mumbai
Publication Year
Total Pages98
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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