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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir डॉ. हर्टेल ने सर्व प्रथम पंचतंत्र" का संपादन कर उसे हार्वर्ड ओरियंटल सीरीज संख्या 13 में प्रकाशित कराया। पंचतंत्र की रचना होते ही यह ग्रंथ शिक्षित समाज में अल्पकाल में लोकप्रिय हो गया। विद्या-परंपरा में उसका अध्ययन एवं अध्यापन भी प्रारंभ हुआ। इस ग्रंथ के अनेक श्लोक वा श्लोकार्ध, सुभाषितों अथवा लोकोक्तियों के रूप में लोगों के जिह्वाग्र पर नर्तन करने लगे। पंचतंत्र ग्रंथ विश्वविख्यात है और संसार की प्रायः सभी भाषाओं में उसके अनेक अनुवाद हो चुके हैं। अधिकांश विद्वानों के मतानुसार बोकेशियों, इसाप प्रभृति पाश्चात्य कथालेखकों को पंचतंत्र से ही प्रेरणा प्राप्त हुई थी। पंचदशमालामंत्र - श्लोक- 1200। विषय- तंत्रशास्त्र । पंचदशांगयन्त्रविधि - श्लोक - 420| विषय- तंत्रशास्त्र । पंचदशी- श्री. विद्यारण्य व भारतीतीर्थ द्वारा रचित अद्वैत वेदांत संबंधी एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ। पंद्रह प्रकरण होने के कारण इसे पंचदशी नाम प्राप्त हुआ है। प्रथम पांच प्रकरणों के क्रमशः नाम हैं- तत्त्वविवेक, महाभूतविवेक, पंचकोशविवेक, द्वैतविवेक और महावाक्यविवेक। तत्त्वविवेक में ब्रह्मात्मैक्यरूप तत्त्व का अन्नमयादि पंचकोशों से विवेक (भेद) किया जाने से उसे तत्त्वविवेक नाम दिया है। इस प्रकरण में जीव और ब्रह्म का ऐक्य प्रतिपादित किया है। महाभूतविवेक में पंचमहाभूतों के गुण, धर्म और कार्यों का विवेचन है। पंचकोशविवेक में अन्नमयादि पंचकोश के स्वरूप तथा अनात्मकत्व का विवेचन है। द्वैतविवेक में ईशनिर्मित व जीवकृत द्वैत कथन किया है। ईशकृत द्वैत सदैव एकरूप होता है किन्तु जीव फिर भी उस द्वैत के विषय में अनेक कल्पनाएं करता है। यह बात एक दृष्टांत से बताई है :__रत्न के प्राप्त होने पर एक जीव को आनंद होता है तो दूसरे को वह प्राप्त न होने के कारण दुःख होता है। विरागी व्यक्ति केवल उसकी ओर देखता है, उसे न आनंद होता है और न क्रोध। ईशकृत द्वैत जीव को बद्ध नहीं करता किन्तु जीवकृत द्वैत जीव को बद्ध करता है। ___ महावाक्यविवेक में "प्रज्ञानं ब्रह्म " "अहं ब्रह्मास्मि", "तत्त्वमसि" व "अयमात्मा ब्रह्म" इन महावाक्यों से जीव और ब्रह्म के ऐक्य का प्रतिपादन किया गया है। आगे के क्रमांक 6 से 10 तक के प्रकरणों के नाम हैं- चित्रदीप, तृप्तिदीप, कूटस्थदीप ध्यानदीप और नाटकदीप।। चित्रदीप में वस्त्र पर चित्र के समान ब्रह्म पर जगत् का आरोप हुआ है यह नाना उपपत्तियों से समझाया गया है। तृप्तिदीप मे जीव की सात अवस्थाओं का सम्यक् प्रतिपादन किया है और यह भी कहा गया है कि अपरोक्ष आत्मज्ञान से मनुष्य को कृतकत्यता प्राप्त होती है और वह तृप्त हो जाता है। कूटस्थदीप में कूटस्थ व जीव इनके स्वरूप का भेद बताकर कहा गया है कि कूटस्थ का भेद, घटाकाश व महाकाश के बीच के भेद के समान नाममात्र ही है। ध्यानदीप में बताया गया है कि केवल आत्मोपदेश से ही उपासनोपयोगी परोक्ष ज्ञान प्राप्त होता है, किन्तु अपरोक्ष ज्ञान विचार के बिना नहीं होता। फिर भी अनेक बार इस विचार को भी कुछ प्रतिबंध होते हैं। विषयों में चित्त की आसक्ति, बुद्धिमांद्य, कुतर्क, आत्मा के कर्तृत्त्वादि गुण हैं। ऐसे विपरीत ज्ञान को यथार्थ मानकर उस बारे में आग्रह रखना, ऐसे चार प्रकार के वर्तमान प्रतिबंध हैं। इन प्रतिबंधों का नाश होता है शम, दम, तितिक्षा, उपरति, श्रद्धा एवं समाधान से। तत्पश्चात् निर्गुणोपासना के प्रकार कथन करते हुए उसकी प्रशंसा की है और कहा है कि निर्गुण ब्रह्म की उपासना से जीव मुक्त होता है। ___नाटकदीप में साक्षी चैतन्य को नृत्यशाला के दीप की उपमा देते हुए साक्षी का दीपवत् निर्विकारत्व सिद्ध किया है। अंतिम ग्यारहवें से पंद्रहवें प्रकरणों का विषय है ब्रह्मानंद । उन प्रकरणों के क्रमशः नाम हैं- योगानंद, आत्मानंद, अद्वैतानंद, विद्यानंद और विषयानंद । योगानंद में आत्मज्ञान का फल, ब्रह्म का श्रुत्युक्त स्वरूप, ब्रह्मानंद के प्रकार, उनका स्वयंवेद्यत्व आदि विषय आए है। आत्मानंद में आत्मा को अत्यंत प्रिय बताते हुए उसी का निरंतर अनुसंधान किया जाये ऐसा उपदेश है। अद्वैतानंद में आनंद रूप ब्रह्म को एकमेवाद्वितीय व सत्य बताते हुए उसे जगत् का उपादान कारण माना है। अतः कहा गया है कि समस्त जगत् ही आनंद रूप हैं ऐसा चिंतन कर, उसमें चित्त को स्थिर करने से अद्वैतानंद का लाभ होता है। विद्यानंद का स्वरूप तथा उसके अवांतर भेद कथन किये गये हैं। दुःख का अभाव, इष्टप्राप्ति, कृतकृत्यता की भावना तथा सभी प्राप्तव्य हुआ है ऐसा निश्चय, ये वे चार भेद हैं। विषयानंद में यह प्रतिपादित किया गया है कि ब्रह्मानंद का एकदेशसदृश विषयानंद, शांत वृत्ति में ही अनुभव आता है। ___ जिस प्रकार काष्ठ (लकडी) में उष्णता व प्रकाश दोनों ही उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार शांत वृत्ति में सुख च चैतन्य दोनों की उत्पत्ति होती है। वह विषयानंद, चित्त के अंतर्मुख होने की दृष्टि से अत्यधिक उपयोगी सिद्ध होता है। अतः इस प्रकरण के अंत में उपदेश है कि विषयानंद चित्त को एकाग्र करने का द्वार ही है ऐसा मानकर, बाह्य विषयों का त्याग करते हुए वृत्ति को अंतर्मुख बनाया जाये। पंचदशीयन्त्रकल्प - श्लोक- 4901 विषय- तंत्रशास्त्र । पंचदशीविधानम् - गौरी-शंकर संवादरूप। इसमें पंचदशी मंत्र के निर्माण की विधि बतलायी गई है। पंचनिदानम् - ले- गंगाधर कविराज । समय ई. 1798-1885 । विषय- आधुनिक चिकित्सा शास्त्र (पॅथॉलॉजी)। पंचपात्रशोधनम् - श्लोक- 104। इसमें कौलों के 22 पात्रों की विधि भी वर्णित है। संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड /175 For Private and Personal Use Only
SR No.020650
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages638
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size30 MB
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