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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir की हैं। सब अपनी श्रेष्ठता प्रतिपादन करती हैं, अन्त में सब शत्रुत्व की प्रमुख कथा है। का समान महत्त्व दर्शाया गया है। ____4) लब्धप्रणाशम्- इसमें बंदर और मगर की मित्रता की पंचकल्पतरु - ले. श्रीराघवदेव। पिता- रामानंद तर्कपंचानन । प्रमुख कथा है। श्लोक 8832 1) सन्तानक 2) कल्पवृक्ष 3) हरिचन्दन 4) 5) अपरीक्षितकारकम्- इसमें ब्राह्मण और उसके नेवले पारिजात और 5) मन्दारक ये पांच कल्पतरू माने जाते हैं। की, अविचार का परिणाम दिखाने वाली कथा है। विषय- विविध चक्रों, महाविद्याओं, सिद्धविद्याओं, विविध पांच तंत्रों की ये पांच प्रमुख कथाएं हैं। उनके संदर्भ में आसनों, न्यासों तथा 16, 38 और 64 उपचारों का वर्णन । भी अनेक उपकथाएं प्रत्येक तंत्र में यथासार आती हैं। प्रत्येक दीक्षा, मन्त्र, मन्त्रसंस्कार, दीक्षापद्धति, मार्ग का शोधन, कलावती तंत्र इस प्रकार कथाओं की लडी सा ही है। पंचतंत्र में कुल आदि दीक्षाओं का निरूपण। पिता आदि से मन्त्रग्रहण में 87 कथाएं हैं, जिनमें अधिकांश हैं प्राणी कथाएं। प्राणी दोष, अंकुरापर्णविधि, अग्निसंस्कार आदि का निर्देश, कृष्ण के कथाओं का उगम सर्वप्रथम हुआ महाभारत में। विष्णुशर्मा ने मन्त, पूजा आदि का विधान, मृत्युंजय आदि विविध मन्त्रों अपने पंचतत्र की रचना महाभारत से ही प्रेरणा लेकर की का विधान, शिवप्रकरण, गणेशप्रकरण आदि इस तांत्रिक ग्रंथ है। उन्होंने अपने ग्रंथ मे महाभारत के कुछ संदर्भ भी लिए के विषय हैं। हैं। इसी प्रकार रामायण, महाभारत मनुस्मृति तथा चाणक्य के पंचकल्याणकपूजा- ले. शुभचंद्र। जैनाचार्य। ई. 16-17 वीं अर्थशास्त्र से श्री विष्णुशर्मा ने अनेक विचार और श्लोक शती। ग्रहण किये हैं। इससे माना जाता है कि विष्णुशर्मा चन्द्रगुप्त पंचकल्याणकोद्यानपूजा - ले. ज्ञानभूषण। जैनाचार्य। ई. 16 मौर्य के पश्चात् ईसा पूर्व पहली शताब्दी में हुए होंगे पंचतत्र वीं शती। की कथाओं की शैली सर्वथा स्वतंत्र है। उस का गद्य जितना पंचकल्याणचम्पू - ले. चिदम्बर। इस श्लिष्टकाव्य में राम, सरल और स्पष्ट है, उतने ही उसके श्लोक भी समयोचित, कृष्ण, विष्णु शिव तथा सुब्रह्मण्य इन पांच देवताओं के विवाहों अर्थपूर्ण, मार्मिक और पठन-सुलभ हैं। परिणामस्वरूप इस ग्रंथ का वर्णन है । लेखक ने स्वयं इस पर टीका भी लिखी है। की सभी कथाएं सरस, आकर्षक एवं प्रभावपूर्ण बनी हैं। श्री. पंचकशान्तिविधि - ले. मधुसूदन गोस्वामी। विषय- धर्मशास्त्र । विष्णुशर्मा ने अनेक कथाओं का समारोप श्लोक से किया है पंचकोशयात्रा - ले. शिवनारायणानन्द तीर्थ । और उसी से किया है आगामी कथा का सूत्रपात।। पंचग्रंथी - बुद्धिसागर। विषय- व्याकरण। इसी का दूसरा पंचतंत्र की कहानियां अत्यंत प्राचीन हैं। अतः इसके विभिन्न नाम है बुद्धिसागर-व्याकरण । सूत्रपाठ, धातुपाठ, गणपाठ (अथवा . शताब्दियों में, विभिन्न प्रांतोंमें, विभिन्न संस्करण हुए है। इसका प्रातिपदिक पाठ) उणादिपाठ तथा लिंगानुशासन ये व्याकरण सर्वाधिक प्राचीन संस्करण "तंत्राख्यायिका' के नाम से विख्यात शास्त्र के पांच अंग या ग्रंथ हैं। इन पांच अंगों में सूत्रपाठ है तथा इसका मूल स्थान काश्मीर है। प्रसिद्ध जर्मन विद्वान् अथवा शब्दानुशासन) मुख्य है। शेष चार अंगों को खिलपाठ डॉ. हर्टेल ने अत्यंत श्रम के साथ इसके प्रामाणिक संस्करण कहते हैं। को खोज निकाला था। उनके अनुसार "तंत्राख्यायिका" या पंचचक्रपूजनम् - रुद्रयामलान्तर्गत शिव-पार्वती संवादरूप। इस "तंत्राख्यान' ही पंचतंत्र का मूल रूप है। इस में कथा का ग्रंथ में राजचक्र, महाचक्र, देवचक्र, वीरचक्र, पशुचक्र नामक रूप भी संक्षिप्त है तथा नीतिमय पद्यों के रूप में समावेशित पांच चक्रों के पूजन की विधि प्रतिपादित है। पद्यात्मक उद्धरण भी कम हैं। संप्रति पंचतंत्र के 4 भिन्न पंचतत्रम् - इस विश्वविख्यात कथाग्रंथ के रचयिता हैं श्री संस्करण उपलब्ध होते हैं। पंचतंत्र की रचना का काल अनिश्चित विष्णुशर्मा। इस ग्रंथ में प्रतिपादित राजनीति के पांच तंत्र है किंतु इसका प्राचीन रूप, डॉ. हर्टल के अनुसार दूसरी (भाग) हैं। इसी लिये इसे "पंचतंत्र" नाम प्राप्त हुआ। इन शताब्दी का है। इसका प्रथम अनुवाद छठी शताब्दी में ईरान तंत्रों के नाम इस प्रकार हैं की पहलवी भाषा में हआ था। हर्टेल ने 50 भाषाओं में 1) मित्रभेद- इसमें पिंगलक नामक सिंह तथा संजीवक इसके 200 अनुवादों का उल्ख किया है। पंचतंत्र का सर्वप्रथम नामक बैल इन दो मित्रों के बीच एक धूर्त सियार ने किस परिष्कार एवं परिबृंहण, प्रसिद्ध जैन विद्वान् पूर्णभद्र सूरि ने संवत् 1255 में किया है और आजकल का उपलब्ध संस्करण प्रकार वैमनस्य निर्माण किया इसकी कथा है। इसी पर आधृत है। पूर्णभद्र के निम्न कथन से पंचतंत्र के 2) मित्रसंप्राप्ति - इसमें चित्रग्रीव हंस, हिरण्यक चूहा, पूर्ण परिष्कार की पुष्टि होती है : लघुपतनक कौआ, चित्रांग हिरन और मंथरक नामक कछुए के बीच मित्रता किस प्रकार हुई इसकी प्रमुख कथा है। प्रत्यक्षरं प्रतिपदं प्रतिवाक्यं प्रतिकथं प्रतिश्लोकम्। 3) काकोलूकीयम् - इसमें कौए और उलूक (उल्लू) के श्रीपूर्णभद्रसूरिर्विशेषयामास शास्त्रमिदम्।। 174/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020650
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages638
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size30 MB
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