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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्मृतियों एवं राजनीतिशास्त्र के उद्धरण दिये हुए हैं। त्यौहार व विधि, अन्य पुराणों के अनुसार तथा भारतवर्ष के अन्य भागों में प्रचलित त्यौहारों व विधियों जैसे ही हैं। किन्तु नीतिविलास - ले- व्रजराज शुक्ल । नवहिमोत्सव तथा बुद्धजन्म ये दो त्यौहार सर्वथा भिन्न हैं। नीतिविवेक - ले- करुणाशंकर । इस ग्रंथ का आरंभ वैशंपायन और जनमेजय के संवाद रूप नीतिशतकम् - (1) ले- भर्तृहरि। (2) ले- पं. तेजोभानु। में हुआ है। इसमें वैशंपायन जनमेजय को राजा गोनंद तथा ई. 20 वीं शती। उनके पांडवकालीन वंशजों की कथा सुनाते हैं। पश्चात् ग्रंथकार नीतिसारसंग्रह - ले- मधुसूदन । ने काश्मीर के माहात्म्य का वर्णन किया है, काश्मीर की भूमि नीलकंठविजयचंपू - ले- नीलकंठ दीक्षित । सुप्रसिद्ध विद्वान् की निर्माणविषयक आख्यायिका कथन की है और उस प्रदेश अप्पय दीक्षित के भ्राता। इस चंपू-काव्य का रचनाकाल 1636 के पिशाचों एवं कडी ठंड से होने वाले कष्टों से मुक्ति हेतु ई. है। कवि ने स्वयं अपने काव्य की निर्माण-तिथि कल्यब्द विविध व्रत तथा विधि-विधान बताए हैं। 4738 दी है। इस में देवासुर-संग्राम की प्रसिद्ध पौराणिक । नीलरुद्रोपनिषद् - शैव पंथी एक नव्य उपनिषद्। यह तीन कथा 5 आश्वासों में वर्णित है। प्रारंभ में महेन्द्रपुरी का खंडों में विभजित है। नीलरुद्र है इस उपनिषद् के देवता विलास-मय चित्र है जिसके माध्यम से नायिका-भेद का वर्णन और परमगुरु । इसमें बताया गया है कि नीलरुद्र ने 'अस्पर्शयोग प्रस्तुत हुआ है। प्रकृति का मनोरम चित्र, क्षीरसागर का सुंदर संप्रदाय' का प्रवर्तन किया। इस उपनिषद् के द्रष्टा को नीलरुद्र चित्र, शिव व शैवमत के प्रति श्रद्धा एवं तात्त्विक ज्ञान की स्वर्ग से पृथ्वी पर आते हुए दिखाई दिये। किन्तु प्रस्तुत अभिव्यक्ति, इस ग्रंथ की अपनी विशेषताएं हैं। इसमें श्लोकों उपनिषद् के प्रथम व द्वितीय खंड में उन्हीं का वर्णन है। की संख्या 279 है। इस पर टीका घनश्याम ने ई. 18 वीं यह वर्णन, ऋग्वेद के रुद्रसूक्तों का अनुसरण है। ग्रंथ के शती में लिखी है। तृतीय खंड में महिषरूप केदार का स्तोत्र है। महिषरूप केदार नीलकण्ठी टीका - टीकाकार नीलकण्ठ चतुर्धर । महाराष्ट्र के है उस स्वरूप में रुद्र। उनके कुछ अवयव हल्के पीले हैं, नगर जिले में कोपरगाव के निवासी। यह महाभारत पर कुछ काले हैं और कुछ हैं हल्के सफेद । “नीलशिखंडाय विद्वन्मान्य टीका है। ई. 17 वीं शती। नमः" उनका मंत्र है। नीलकण्ठीय-विषयमाला - ले- कामाक्षी। नीलवृषोत्सर्ग - ले-अनन्तभट्ट । विषय-धर्मशास्त्र से संबंधित । नीलतन्त्रम् - 1) देवी-ईश्वर संवादरूप। श्लोक- 595। पटल नीलापरिणयम् (नाटक) - ले-वेङ्कटेश्वर। (नैधृव वेंकटेश) 17। विषय- नीलतंत्र माहात्म्य। इस तंत्र के अनुयायियों के ई. 18 वीं शती। इसकी कथावस्तु उत्पाद्य हैं। प्रधान रस शय्यात्याग के अनन्तर कर्तव्य, देवी-स्मरण आदि, तांत्रिक स्नान, शृंगार। स्त्रिया भी पुरुषों की भूमिका में दिखाई हैं। कथासारमंत्र-जप, आदि की विधि, पूजास्थान का निर्णय, नीलदेवी की राजगोपाल नाम लेकर श्रीकृष्ण द्वारका में रहते हैं। एक दिन पूजाविधि, तंत्रयंत्र लेखन, भूतशुद्धि, यंत्र-शक्ति देवता के महर्षि गोप्रलय को गरुड एक दिव्य मणि तथा दर्पण देते हैं ध्यानादि, मत्स्य, मांस आदि नैवेद्यदान आदि। (2) भैरव-पार्वती जिसे महर्षि सौराष्ट्र नरेश के उद्यान में लगाते हैं। राक्षस संवादरूप। श्लोक- 7151 पटल- 15। यह ब्रह्मनीलतंत्र से 'मायाधर वह दर्पण प्रतिनायक स्थूलाक्ष के लिए प्राप्त कर मिलता जुलता है। लेता है। राजगोपाल चोल-राजकुमारी चम्पकमंजरी पर अनुरक्त नीलमतपुराणम् - ले- नीलमुनि। इस ग्रंथ में नीलमुनि ने हैं। चम्पकमंजरी का मदन-सन्ताप देखकर वे उसके सामने काश्मीरी हिन्दुओं के लिये अनेक धर्मकृत्य, व्रत, त्यौहार तथा प्रकट होते हैं। मायाधर अदृश्य अंजन के प्रयोग से नायिका समारोह बताये हैं। इसी प्रकार काश्मीरस्थित पुण्यक्षेत्रों की ___को छुपाकर स्थूलाक्ष के पास ले जाने की योजना बनाता है। जानकारी भी इस ग्रंथ में विस्तारपूर्वक दी गई है। यह स्वतंत्र वह नायिका की सखियों को पकडता है। उनका आक्रोश सुन पुराण-ग्रंथ न होकर किसी पुराण का एक भाग होगा ऐसा राजगोपाल नायिका को छोड वहां जाते हैं। इतने में मायाधर प्रतीत होता है। कल्हण की राजतरंगिणी में इस ग्रंथ का नायिका को अदृश्य कर देता है। सखियां समझती हैं कि उल्लेख है और ऐसा अनुमान व्यक्त किया गया है कि इसकी राक्षस नायिका को खा गया। यह सुनकर नायक मूर्च्छित रचना ईसा की 12 वीं शताब्दी में हुई होगी। किन्तु राजतरंगिणी होता है परंतु अदृश्य रूप में नायिका उसे आलिंगन करती के प्रथम भाग में दिया गया कालक्रम विश्वसनीय नहीं है। है जिससे वह भी सचेत होता है और नायिका के ललाट अतः कल्हण के अनुमान को ग्राह्य नहीं माना जा सकता। पर मला अंजन लगाने पर वह भी सशरीर प्रकट होती है। फिर भी प्रस्तुत ग्रंथ के अंतर्गत प्रमाणों से इतना तो निर्विवाद गरुड स्थूलाक्ष को मार डालता है और अन्त में नायक-नायिका निश्चित होता है कि इस ग्रंथ का रचना-काल 6 वीं शताब्दी का विवाह सम्पन्न होता है। के पहले का नहीं हो सकता। इस ग्रंथ में वर्णित अधिकांश नीवी - ले-शंकरराम। व्याकरणविषयक ग्रंथ। रूपावतार की संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 167 For Private and Personal Use Only
SR No.020650
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages638
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size30 MB
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