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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इन व तद्विबीच संवा व्याख्या। नूतनमूर्तिप्रतिष्ठा - ले- नारायणभट्ट। आश्वलायन-गृह्यपरिशिष्ट पर आधारित। नूतनगीतावैचित्र्यविलास - ले- भगवद्गीतादास। नृगमोक्षचम्पू - ले- नारायण भट्टपाद । नृत्तरत्नावली - ले- जय सेनापति। 8 अध्याय। विषय मार्गी तथा देशी संगीत का विवेचन। भरत मत तथा सोमेश्वर मत का अनुकरण करते हुए नवीनतम आविष्कार समाविष्ट किए हैं। नृत्यनिर्णय - ले- पुडरीक विठ्ठल। ई. 16 वीं शती। इस ग्रंथ की रचना अकबर बादशाह के आश्रय में हुई। श्री पुंडरीक एक गायक व संगीतज्ञ के रूप में विशेष प्रसिद्ध थे। संगीत-पद्धति को इन्होंने सुव्यवस्थित स्वरूप प्रदान किया था। अंत में अकबर की इच्छानुसार नृत्यनिर्णय ग्रंथ लिखकर, उन्होंने नृत्य-कला संबंधी साहित्य की भी श्री-वृद्धि की। नृत्येश्वरतन्त्रम् - इसमें परशुराम, रामभद्र, सुग्रीव, भीम, हनुमान् आदि विविध युद्धवीरों का आवाहन और पूजन-विधि वर्णित हैं। 8 भैरव तथा 8 महाकाली के नामों के साथ उनका ध्यान और पूजन वर्णित है। नृपचन्द्रोदय - ले- सतीशचंद्र भट्टाचार्य । विषय- सम्राट पंचम जार्ज की प्रशस्ति। नृपविलास - पर्वणीकर सीताराम । ई. 18 से 19 वीं शती। नृसिंहउत्तरतापिनी (उपनिषद्) - अथर्ववेद से संबंद्ध इस नव्य उपनिषद् के 9 खंड हैं। इन सभी खंडों में नृसिंह को ही परब्रह्म बताया गया है। पश्चात् तीन गुण, तीन अवस्था, तीन कोश, तीन ताप, तीन चैतन्य तथा तीन ईश्वर ऐसी त्रिविधता का वर्णन है। फिर नृसिंह के सगुण-निर्गुण स्वरूप । का निदर्शन किया गया है। नृसिंहकवचम् - ब्रह्माण्डपुराणान्तर्गत । नृसिंहचम्पू - 1) ले- संकर्षण। 2) ले- दैवज्ञ सूर्य। ई. 16 वीं शती। लेखक ने प्रस्तुत काव्य में अपना परिचय दिया है। प्रस्तुत चंपूकाव्य 5 उच्छ्वासों में विभक्त है। इसमें नृसिंहावतार की कथा का वर्णन है। प्रथम उच्छ्वास में हिरण्यकशिपु द्वारा प्रह्लाद की प्रताडना का वर्णन है। तृतीय उच्छ्वास में हिरण्यकशिपु का वध तथा चतुर्थ उच्छ्वास में देवताओं व सिद्धों द्वारा नृसिंह की स्तुति है। पंचम उच्छ्वास में नृसिंह का प्रसन्न होना वर्णित है। इस चंपू काव्य में श्लोकों की संख्या 75 और गद्य के 19 चूर्णक हैं। इसका प्रकाशन जालंधर से हुआ है। संपादक हैं- डा. सूर्यकांत शास्त्री। नृसिंहजयन्ती-निर्णय - ले- गोपालदेशिक । नृसिंहपरिचर्या - 1) ले- कृष्णदेव। पिता-रामाचार्य। वैकुंठानुष्ठान पद्धति से गृहीत। (2) श्लोक- 126। पटल- 5। विषयनृसिंहपरिचर्या में पवित्रारोपणविधि, उसका प्रयोग तथा नृसिंह-पूजा।। नृसिंहपूजापद्धति - ले- वृन्दावन । नृसिंहपूर्वतापिनी उपनिषद्- अथर्ववेद से संबंधित एक नव्य उपनिषद्। वैष्णव मत के इस उपनिषद् के आठ अध्याय हैं। इन अध्यायों को भी उपनिषद् ही कहा गया है। ब्रह्मज्ञान की जिज्ञासा व तद्विषयक निर्णय है इसका उद्देश्य । ब्रह्मा तथा अन्य देवताओं के बीच संवाद के रूप में उसका निरूपण किया गया है। प्रारंभ में चर्चित नृसिंह-मंत्र इस प्रकार है। उग्रं वीर महाविष्णुं ज्वलन्तं सर्वतोमुखम् । नृसिंह भीषणं भद्रं मृत्युमृत्यु नमाम्यहम्।। दूसरे उपनिषद् की कथानुसार देवगण जब मृत्यु के भय से प्रजापति के पास गए तब उन्होंने अमरत्व हेतु देवताओं को नृसिंह-मंत्र का जाप करने का परामर्श दिया। तीसरे उपनिषद् में मंत्रों के सभी तांत्रिक अंगों का निरूपण है। चौथे उपनिषद् में प्रणव, सावित्री, यजुर्लक्ष्मी व नृसिंहगायत्री नामक अंगमंत्र हैं। पांचवें उपनिषद् में इस नृसिंहचंक्र का विस्तृत वर्णन। इसमें यह भी बताया गया है कि बत्तीस पंखुडियों का कमल बनाकर उसमें नृसिंह-मंत्र किस प्रकार लिखा जाय । अंतिम तीन उपनिषदों में नृसिंहचक्र-पूजा की महिमा वर्णित है। नृसिंहप्रसाद - ले- दलपतिराज। पिता-वल्लभ। ई. 15-16 वीं शती। इस ग्रंथ के प्रत्येक भाग के प्रारंभ में नृसिंह देवता का आवाहन होने से इस ग्रंथ को नृसिंहप्रसाद (नृसिंह की कृपा का फल) यह नाम दिया गया है। इस ग्रंथ को धर्मशास्त्रविषयक एक ज्ञानकोश कहा जा सकता है। इस ग्रंथ के संस्कार, आह्निक, श्राद्ध, काल, व्यवहार, प्रायश्चित्त, कर्मविपाक, व्रत, दान, शांति, तीर्थ, और प्रतिष्ठा नामक बारह सारभाग हैं। उपनयन, विवाह, चारों ही आश्रमों के लोगों के कर्त्तव्य, दिनमान के आठ भाग, व्रत, दान के प्रकार, तीर्थस्थल आदि विषयों का प्रस्तुत ग्रंथ में समावेश है। लेखक- श्री. दलपतिराज थे शुक्ल यजुर्वेदी भारद्वाज-गोत्री। आप निजामशाही में दफ्तर-प्रमख और वैष्णव धर्म के अच्छे ज्ञाता थे।आपने सूर्यपंडित नामक गुरु के पास अध्ययन किया था। कतिपय विद्वानों के मतानुसार ये सूर्यपंडित महाराष्ट्र के सुप्रसिद्ध संत एकनाथ महाराज के पिता होंगे। श्री. दलपति को मातुल-कन्या-विवाह सम्मत है। उनके कथनानुसार यह विवाह वेदों ने भी मान्य किया है। उसी प्रकार उनका कहना है कि यदि किसी बात के बारे में श्रुति तथा स्मृति का परस्पर विरोध हो तो उस बात को वैकल्पिक माना जाना चाहिये। नृसिंहप्रिया - सन 1942 में आहोबिलमठ तिरुवाल्लूर चिंगलपेट से जे. रंगाचारियर स्वामी के संपादकत्व में संस्कृत और तमिल भाषा ने यह पत्रिका प्रकाशित हुई। यह वैष्णव धर्म प्रधान दार्शनिक पत्रिका थी। नृसिंहविलास - ले- श्रीकृष्ण ब्रह्मतंत्र परकाल स्वामी । नृसिंहशतकम् - ले- तिरुवेंकट-तातादेशिक । नेलोर (आंध्र) 168 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020650
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages638
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size30 MB
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