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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ग्रंथ लिखा जिसमें दस रूपकों के लक्षण और विशेषताएं बताई गई हैं। "दशरूपक' की रचना 300 कारिकाओं में हुई है, यह ग्रंथ 4 प्रकाशों में विभक्त है। प्रथम प्रकाश में रूपक के लक्षण, भेद, अर्थ-प्रकृतियां, अवस्थाएं, संधियां, अर्थोपक्षेक, विष्कंभक, चूलिका, अंकास्य, प्रवेशक व अंकावतार तथा वस्तु के सर्वश्राव्य, अश्राव्य, व नियतश्राव्य नामक भेद वर्णित हैं। इस प्रकाश में 68 कारिकाएं हैं। द्वितीय प्रकाश में नायक-नायिका भेद, नायक-नायिका के सहायक नायिकाओं के 20 अलंकार, 4 वृत्तियां (कैशिकी, सात्त्वती, आरभटी व भारती) नाट्य-पात्रों की भाषा का वर्णन है। इस प्रकाश में 72 कारिकायें हैं। तृतीय प्रकाश मे पूर्वरंग अंक विधान व रूपक के 10 भेद वर्णित हैं। इसमें 76 कारिकाएं हैं। चतुर्थ प्रकाश में रस का स्वरूप, उसके अंग व 9 रसों का विस्तृत वर्णन है। इस अध्याय में रसनिष्पत्ति, रसास्वादन के प्रकार तथा शांत रस की अनुयोगिता पर विशेष रूप से प्रकाश डाला गया है। इस प्रकाश में 86 कारिकाएं हैं। इसके 3 हिंदी अनुवाद प्राप्त हैं- 1) डॉ. गोविंद त्रिगुणायत कृत दशरूपक का अनुवाद । 2) डॉ. भोलाशंकर व्यास कृत दशरूपक व धनिक की अवलोक नामक व्याख्या का अनुवाद (चौखंबा विद्याभवन) 3) आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदीकृत अनुवाद (राजकमल प्रकाशन, दिल्ली) दशरूपक-तत्त्वदर्शनम् - ले. डॉ. रामजी उपाध्याय। सागर विश्वविद्यालय के संस्कृत विभागाध्यक्ष । भारतीय नाट्यशास्त्र से संबंधित प्रायः सभी विषयों का परामर्श प्रस्तुत प्रबंध में 23 अध्यायों में (पृष्ठसंख्या 215) लिया गया है। नाट्यशास्त्र का सर्वकष प्रतिपादन करने वाला यह एक उत्तम गद्य प्रबंध नाट्यशास्त्र के अध्येताओं के लिए उपकारक है। प्रकाशन वर्ष वि.सं. 2035। प्रकाशक- भारतीय संस्कृति संस्थानम्, नारीबारी, इलाहाबाद। दशलक्षणी व्रतकथा - ले. श्रुतसागरसूरि। जैनाचार्य । ई. 16 वीं शती। दश-श्लोकी - ले. निंबार्काचार्य। स्वसिद्धांत प्रतिपादक 10 श्लोकों का संग्रह। इस पर हरि व्यास देव कृत व्याख्या प्राचीन तथा महत्त्वपूर्ण मानी जाती है।। दशाननवधम् - ले. योगीन्द्रनाथ तर्कचूडामणि। ई. 20 वीं शती। व्याकरणनिष्ठ महाकाव्य । दशावतारचरितम् - ले.क्षेमेन्द्र। ई. 11 वीं शती। पिताप्रकाशेन्द्र। विष्णुभक्ति की भावना से प्रेरित होकर लिखा हुआ काव्य। दशावतारचरितम् - ले. कविशेखर राधाकृष्ण तिवारी। सोलापुर (महाराष्ट्र) के निवासी। दशावताराष्टोत्तराणि - ले. बेल्लमकोण्ड रामराय । दशोपनिषद-भाष्यम् - ले. मध्वाचार्य। ई. 12-13 वीं श. द्वैतमत का प्रतिपादन इस का प्रयोजन है। दस्युरत्नाकर - ले. ध्यानेश नारायण तथा विश्वेश्वर विद्याभूषण । ई. 20 वीं शती। 1 सन 1957 में "मंजूषा" में प्रकाशित । एकांकी। दृश्यसंख्या चार । नान्दी प्रस्तावना तथा भरतवाक्य का अभाव । नायक दस्युरत्नाकर के मुनि वाल्मीकि बनने तक का चरित्र-विकास है। दाधीचारिगजाङ्कुश - ले. पं. शिवदत्त त्रिपाठी । दानकेलिकौमुदी - ले. रूपगोस्वामी। ई. 16 वीं शती। श्रीकृष्ण विषयक काव्य । दानकेलिचिन्तामणि - ले. रघुनाथदास। ई. 15 वीं शती । कृष्णचरित विषयक काव्य । दानभागवतम् - ले. कुबेरानन्द । श्लोक 1600। दानशीला - ले. भट्टमाधव चक्रवर्ती। ग्वालियर निवासी। इसका प्रकाशन दो बार किया गया है। ___ 1) काव्यमाला के तृतीय गुच्छक में ई. स. 1899 में निर्णयसागर प्रेस से किया गया है। 2) खेमराज कृष्णदास ने वेंकटेश प्रेस से ई.स. 1931 में किया है। इस रचना में 53 पद्य हैं। सभी पद्य शृंगारप्रचुर हैं। दानवाक्यावली - ले.हेमाद्रि । ई. 13 वीं शती । पिता कामदेव। दानस्तुतिसूक्तम् - विभिन्न राजाओं ने ऋषियों को अश्व, गाय, बैल, धन का जो दान किया, उसके लिये इन ऋषियों ने राजाओं की स्तुति की। इसे ही दानस्तुति-सूक्त कहा गया है। कात्यायन के ऋक्सर्वानुक्रमणी में ऐसे 22 सूक्तों का उल्लेख है। परंतु आधुनिक विद्वानों के अनुसार यह संख्या 68 है। ऋग्वेद के 10 वें मंडल के 117 वें सूक्त में दान माहात्य का ओजस्वी वर्णन है : मोघमन्नं विन्दते अप्रचेताः । सत्यं ब्रवीमि वध इत् स तस्य । नार्यमणं पुष्यति नो सखायं । केवलाघो भवति केवलादी। ___ अर्थ - जिस मूर्ख ने व्यर्थ अन्नप्राप्ति के लिये श्रम किये वह अन्न नहीं, साक्षात् मृत्यु ही है क्यों कि जो याचकों के रूप में आने वालों को अन्नदान कर संतुष्ट नहीं करता, मित्रों को भी संतुष्ट नहीं करता, अकेला ही खाता है, वह महापातकी है। यह वेदवचन सुप्रसिद्ध है। दाय-भाग - ले. जीमूतवाहन । बंगाल के प्रसिद्ध धर्मशास्त्रकार । इस ग्रंथ में हिन्दु कानूनों का विस्तृत विवेचन है। रिक्थ विभाजन, स्त्री-धन व पुनर्मिलन का अधिक विस्तार के साथ वर्णन किया गया है। "दाय-भाग" में पुत्रों को पिता के धन पर जन्मसिद्ध अधिकार नहीं दिया गया है, अपितु पिता के मरने, संन्यासी होने या पतित हो जाने पर ही संपत्ति पर पुत्रों का अधिकार होने का वर्णन है। पिता की इच्छा होने पर ही उसके धन का पुत्रों में विभाजन संभव है। इस ग्रंथ में यह 136/र कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020650
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages638
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size30 MB
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