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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तारानाथ तथा 11) घनश्याम। दशकुमारचरितसंग्रह नाम से एक अज्ञात कवि ने कथा का संक्षेप किया है। अन्य संक्षेपकार हैं आर.व्ही. कृष्णमाचार्य। दशकुमार -पूर्वकथासार - कवि- वीरभद्रदेव। अकबर की सभा में गोविंद भट्ट, बीरबल और पद्मनाभ मिश्र आदि हिन्दी संस्कृत के अनेक कवि थे। इनके सम्पर्क में वीरभद्र रहे। आपके गुणों का अभिनन्दन पद्मनाभ मिश्र के अनेक ग्रंथों में मिलता है। प्रस्तुत वीरभद्र-कृत ग्रंथ के अनुसार मगध के राजा राजहंस, मालवेश से पराजित होकर विंध्य के वनों में विपत्ति के दिन जब काट रहे थे, तब वहीं राजकुमार का जन्म हुआ। उनके मित्र के दो पुत्र, तीन मंत्रियों के तीन पुत्र और उनके साथ रहे चार मंत्रियों के चार पुत्र - ये दशकुमार मित्रवत् रहते हैं। वीरभद्रदेव को दण्डी का आधार प्राप्त था। यह एक स्वतंत्र काव्यरचना नहीं है। तथापि वीरभद्रदेव ने अपना भाषा का पयाप्त प्रयोग किया है। वारभद्रदव ने कथासार लिखने की परम्परा को आगे बढ़ाया है। दशकुमार-चरितम् (एकांकी- रूपक) - ले. ताम्पूरन । ई. 19 वीं शती। केरलवासी। दशकुमारचरितम् उत्तरार्धम् - ले. चक्रपाणि दीक्षित। दशग्रंथ - संहिता, ब्राह्मण, पदक्रम, आरण्यक, शिक्षा, छंद, ज्योतिष, निघंटु, निरुक्त व अष्टाध्यायी इन दस वेद-वेदांगों को "दशग्रंथ" कहा जाता है। आरण्यक को ब्राह्मण ग्रंथों में न लेते हुए उसका स्वतंत्र निर्देश किया है। उसी प्रकार निघंटु व निरुक्त को एक न मानते हए, उन्हें दो स्वतंत्र ग्रंथ माना गया है। व्याडि ने इन दशग्रंथों के नाम निराले दिये हैं जो इस प्रकार हैं- संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक, शिक्षा, कल्प, अष्टाध्यायी, निघंटु, निरुक्त, छंद व ज्योतिष। ये दशग्रंथ व्याडि द्वारा बताये गये हैं, अतः दशग्रंथों के अध्ययन की परंपरा अति प्राचीन सिद्ध होती है । दशग्रंथी वैदिक श्रेष्ठ माना जाता है। दशकोटि - ले. अण्णंगराचार्य शेष। नवकोटि का खण्डन । दशप्रकरणम् - ले. द्वैत-मत के प्रतिष्ठापक मध्वाचार्य। यह छोटे दार्शनिक निबंधों का एक समुच्चय है। इसमें संकलित निबंध द्वैत, वेदांत के तर्क, धर्म, ज्ञान-मीमांसा आदि विषयों का संक्षिप्त, परन्तु शास्त्रीय निरूपण प्रस्तुत करते हैं। इनके नाम हैं- प्रमाणलक्षण, कथालक्षण, उपाधिखंडन प्रपंचमिथ्यात्वानुमान- खंडन, मायावाद-खण्डन, तत्त्व-संख्यान, तत्त्व-विवेक, तत्त्वोदय, विष्णुतत्त्व-निर्णय और कर्म-निर्णय । "प्रमाणलक्षण" शीर्षक के निबंध में द्वैत मत के निर्धारित प्रमाणों की संख्या एवं स्वरूप का विवेचन किया गया है। कथा-लक्षण शीर्षक निबंध में शास्त्रार्थ की विधि का वर्णन 25 अनुष्टप् पद्यों में निबद्ध किया गया है। दशभक्ति - ले. देवनन्दी पूज्यपाद । जैनाचार्य। माता- देवश्री। पिता- माधवभट्ट। ई. 5-6 वीं शती। दशभक्त्यादिमहाशास्त्रम् - ले. वर्धमान। (द्वितीय) ई. 16 वीं शती। दशभूमिविभाषाशास्त्रम् - ले.नागार्जुन। यह एक भाष्य ग्रंथ है। कुमारजीव द्वारा चीनी भाषा में अनूदित। बोधिसत्त्व की दस भूमियों में प्रमुदिता और विमला का उल्लेख इसमें है। दशरथ-विलाप - ले. कवीन्द्र परमानंद शर्मा। लक्ष्मणगढ ऋषिकुल के निवासी। ई. 19-20 वीं शती। कवि ने संपूर्ण रामचरित्र का वर्णन किया है। दशरथ विलाप उसी का अंश है। दशरूपकम् - ले.धनंजय। मालवराज मुंज के आश्रित। ई. 10 वीं शती। नाट्य-शास्त्र का प्रसिद्ध ग्रंथ। इस ग्रंथ की रचना भरतकृत नाट्यशास्त्र के आधार पर हुई है। नाटक विषयक तथ्यों को इसमें सरस ढंग से प्रस्तुत किया गया है। इस पर अनेक टीकाग्रंथ लिखे गये हैं जिनमें धनंजय के भ्राता धनिक की “अवलोक" नामक व्याख्या अत्यधिक प्रसिद्ध है। इसके अन्य टीकाकारों के नाम हैं- बहरूपभद्र, नसिंहभद्र, देवपाणि, क्षोणीधर मिश्र व कूरवीराम। संस्कृत में अभिनेय काव्य को रूप अथवा रूपक कहा जाता है। "रूप्यते नाट्यते इति रूपम्। रूपमेव रूपकम्" (जिसका अभिनय किया जाता है वह रूप। रूप ही रूपक है) नाट्य को दृश्य काव्य कहा जाता है। नाट्य दृश्य होता है और श्राव्य भी। नाटक के दर्शकों को अभिनय वेष तथा रंगभूमि आदि की सजावट देखनी होती है। अन्य आवाज सुनने होते हैं। इनमें से जो दृश्य होता है, वह प्रमुखतः अभिनेय होता है। उस अभिनेय दश्य को ही रूपक कहा जाता है। रूपक के दो प्रकार हैं- 1) प्रकृति व 2) विकृति । रूपक के सभी लक्षणों और अंगों से युक्त दृश्य काव्य को प्रकृतिरूपक कहा जाता है। दश रूपकों में नाटक, प्रकृति रूपक है। प्रकृतिरूपक के समान किन्तु रूपक का कोई वैशिष्ट्य रखने वाली कृति है विकृतिरूपक। ऐसे महत्त्वपूर्ण दस रूपक, भारत ने बताये है, जिनके नाम हैं- नाटक, प्रकरण अंक (अथवा उत्सृष्टांक) व्यायोग, भाण, समवकार, वीथी, प्रहसन, डिम व ईहामृग। इन दस रूपकों के अंकों की व्याप्ति एक से दश अंकों तक होती है। इनमें मुख्य रस होता है श्रृंगार अथवा वीर। कथावस्तु पांच संधियों में विभाजित होती है। किन्तु छोटे रूपकों में कुछ संधियां कम होती हैं। कथानक के मुख्य पुरुष को "नायक" कहते हैं। मूल कथावस्तु कमनीय, प्रमाणबद्ध, एकसंघ प्रभावोत्पादक होने की दृष्टि से कथा के पांच मूलतत्त्व माने गए हैं। उन्हें अर्थप्रकृति कहते हैं। उनके नाम हैं- बीज, बिन्दु, पताका प्रकरी और कार्य। रूपकों में गद्य व पद्य दोनों ही का प्रयोग किया जाता है। रूपकों का मुख्य उद्देश्य मनोरंजन होने पर भी उनसे तत्कालीन सामाजिक स्थिति की भी थोडी बहुत कल्पना आ सकती है। इसी विषय को संक्षेप में निवेदन करने हेतु धनंजय ने दशरूपक नामक संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 135 For Private and Personal Use Only
SR No.020650
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages638
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size30 MB
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