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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir "ऋषि बंकिमचन्द्र महाविद्यालय"की "देवभाषा परिषद्' के वार्षिकोत्सव पर अभिनीत । कथासार - नायक वक्रेश्वर भिखारी है। उसकी दुर्दशा पर द्रवित होकर एक सिद्ध पुरुष उसे ऐसा दिव्य पाश देता है जिससे इच्छित वस्तु प्राप्त होती है और उससे दूना पडोसी को प्राप्त होता है। वक्रेश्वर अन्धता, कुष्ट और दारिद्र, मांगने की बात सोचता है तो सिद्ध उससे पाश छीन लेता है। दारिद्राणां हृदयम् (उपन्यास) - ले.नारायणशास्त्री खिस्ते । वाराणसी निवासी। दर्शनसार - ले. निजगुणशिवयोगी। समय ई. 12 वीं शती से 16 वीं शती तक (अनिश्चित)। 2) ले. देवसेन। जैनाचार्य। ई. 10 वीं शती। दर्शनोपनिषद् - सामवेद से संबंधित एक नव्य उपनिषद् । महायोगी दत्तात्रेय और उनके शिष्य सांकृति के संवाद से यह उपनिषद विस्तारित हुआ है। दस खंडों के इस उपनिषद् में अष्टांग योग का विवेचन है। पहले खंड में योग के यम-नियमादि अष्टांग बतला कर प्रथम अंग यम की विस्तृत व्याख्या दी गई है, दूसरे खंड में नियमों का, तीसरे खंड में आसनों का, चौथे खंड में प्राणायाम का, इस प्रकार दस खंडों में समाधि तक के सभी योगांगों का व्याख्यापूर्वक विवेचन किया गया है। यह कहा गया है कि अष्टांग का अभ्यास पूर्ण होने के पश्चात् वह योगी ब्रह्ममात्र रहता है। उस समय उसे अनुभव आता है कि वह मैं ब्रह्म हूं। मैं संसारी नहीं। मेरे अतिरिक्त दूसरा अन्य कोई नहीं। जिस प्रकार सागरपृष्ट पर उभरे हुए फेनतरंगादि पदार्थ फिर से सागर ही में विलीन होते हैं, उसी प्रकार यह संसार मुझमे लीन होता है। अतः मुझसे पृथक् मन नाम की वस्तु नहीं, संसार नहीं और माया भी नहीं।" इस प्रकार महायोगी दत्तात्रेय द्वारा योगविद्या का उपदेश दिया जाने पर सांकृति स्वस्वरूप में स्थित हुए। दशकुमारचरितम् - ले. महाकवि दण्डी। पिता- वीरदत्त । माता- गौरी। ई. 7 वीं शती। कांचीवरम् के निवासी। ग्रंथ के नाम के अनुसार इस ग्रंथ में दस कुमारों का चरित्र कथन कवि को अभिप्रेत था परंत उपलब्ध आठ उच्छवासों में आठ कुमारों की ही कथा मिलती हैं। यह ग्रंथ पूर्व पीठिका (5 उच्छ्वास) और उत्तर पीठिका, नामक दो भागों में विभक्त है। कथासार - मगध नरेश राजहंस तथा मालवनरेश मानसार में युद्ध होता है। पराभूत मगधनरेश विन्ध्यपर्वत के अरण्य का आश्रय लेता है। राजपुत्र राजवाहन तथा मन्त्रियों के सात पुत्रों तथा मिथिला के दो राजकुमारों को मगधनरेश विजययात्रा पर भेजता है। वापिस आने पर प्रत्येक कुमार अपनी अपनी कहानी सुनाता है। उन कहानियों में 1) सोमदत्त और उज्जयिनी की राजकन्या वामलोचना का विवाह 2) पुष्पोद्भव और वणिक्कन्या बालचंद्रिका का विवाह, 3) राजवाहन और पिता के शत्रु मालवनरेश मानसार की राजकन्या अवंतिसुंदरी का प्रेमसंबंध 4) मिथिला का राजकुमार अपहारवर्मा और मिथिला के शत्रुराजा विकटवर्मा की पत्नी का विवाह (साथ ही रागमंजरी या काममंजरी नामक वेश्या की छोटी बहन से प्रेमसंबंध) 5) अर्थपाल और काशी की राजकन्या का विवाह 6) प्रमति और श्रावस्ती की राजकन्या का विवाह, 7) मातृगुप्त और दामलिप्त की राजकन्या कटुकावली का विवाह 8) मंत्रगुप्त और कलिंगराजकन्या कनकलेखा का विवाह एवं 9) विश्रुत और मंजुवादिनी का विवाह, इस प्रकार कुमारों के विवाहों की कथाओं का साहस कपट, जादू चमत्कार, चोरी, युद्ध इत्यादि अद्भुत एवं रोमांचकारी घटनाओं के साथ, वर्णन किया है। सारी घटनाओं के वर्णनों में वास्तवता का प्रत्यय आता है। इन सारी घटनाओं में दण्डी ने जिस समाज का वर्णन किया है वह गुप्त साम्राज्य के हास काल का माना जाता है। दशकुमारचरित की ख्याति एक धूर्ताख्यान की दृष्टि से है प्रस्तुत ग्रंथातंर्गत विविध प्रसंगों के वर्णनों से स्पष्ट होता है कि दंडी की दृष्टि वास्तववादी थी और उन्होंने समाज के सभी स्तरों का सूक्ष्म निरीक्षण किया था। दंडी ने यह गद्य ग्रंथ वैदर्भी शैली में लिखा। उसका पदलालित्य रसिकों को मुग्ध करने वाला है। इसीलिये "दंडिनः पदलालित्यम्" कहकर संस्कृत रसिकों ने दंडी की शैली का गौरव किया है। संप्रति यह ग्रंथ जिस रूप में उपलब्ध है, वह दंडी की मूल रचना न होकर उसका परिवर्धित रूप माना जाता है। ग्रंथ की पूर्वपीठिका के बीच मूल ग्रंथ है, जिसके 8 उच्छ्वासों में 8 कुमारों की कहानियां हैं और उत्तरपीठिका में किसी की कहानी न होकर ग्रंथ का उपसंहार मात्र है। वस्तुतः पूर्व व उत्तरपीठिकाएं दंडी की मूल रचना न होकर परवर्ती जोड है किंतु इन दोनों के बिना ग्रंथ अधूरा प्रतीत होता है। पूर्वपीठिका को अवतरणिकास्वरूप व उत्तरपीठिका को उपसंहार स्वरूप कहा गया है। दोनों पीठिकाओं को मिला लेने पर ग्रंथ पूर्ण हो जाता है। ऐसा ज्ञात होता है कि प्रारंभ में दंडी ने संपूर्ण ग्रंथ की रचना की थी किंतु कालांतर में इसका अंतिम अंश नष्ट हो गया और किसी अन्य कवि ने पूर्व व उत्तर पीठिकाओं की रचना कर ग्रंथ को पूरा कर दिया। पूर्व पीठिका व मूल “दशकुमारचरित' की शैली में अंतर दिखाई पडने से यह बात और भी अधिकं पुष्ट हो जाती है। दशकुमार चरित में कथा एकाएक स्थगित होती है तथा अपूर्ण जान पड़ती है। शेष भाग चक्रपाणि दीक्षित ने पूर्ण किया है। दशकुमारचरित के टीकाकारः 1) शिवराम 2) गुरुनाथ काव्यतीर्थ 3) कवीन्द्राचार्य सरस्वती 4) हरिदास सिद्धान्तवागीश 5) हरिपाद चट्टोपाध्याय 6) जी.के. आम्बेकर 7) ए.बी.गजेन्द्रगडकर 8) रेवतीकान्त भट्टाचार्य 9) जीवानन्द 10) 134 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020650
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages638
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size30 MB
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