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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शिवभूति भी पूरी रात श्मशान में रहकर प्रात:काल होते ही नगर में अपने आवास पर आया, स्नानादि शुद्ध होकर राज सभा में आकर राजा को प्रणाम करके खड़ा रहा एवं अपने कर्तव्य पालन का निवेदन किया। राजा भी शिवभूति की साहसिकता सुनकर प्रसन्न हुआ एवं सहस्त्रमल्ल उपनाम देकर सेवा कार्य के लिए नियुक्त दी। एक बार राजा ने मथुरा जितने के लिए सेना के साथ शिवभूति को भी भेजा। क्रमश: प्रयाण करते-करते एक दिन सेनापति ने कहा कि - माथुरा की सेना तो बलवान है, अपनी सेना बल अल्प है। युद्ध कैसे करेंगे? तब शिवभूति ने कहा कि - फिक्र मत करो, साहस एवं पराक्रम से अपन विजय प्राप्त करेंगे। सुभाषित में भी कहा कि - शूरवीरता, दान एवं बुद्धिबल जहाँ होता है, वह व्यक्ति गुणवान होता है और गुणवान को सर्वत्र विजय प्राप्त होती है और हुआ भी ऐसा ही। रण मैदान युद्ध हुआ अंत में मथुरा की सेना हार गई और शिवभूति ने विजय ध्वज लहराया। शिवभूति जब स्थवीपुर नगर में आया, तब महाराजा ने उसका भारी स्वागत किया एवं सहस्त्रमल्ल ऐसा नाम दिया और जो कुछ चाहता हो, तो माँगने का वरदान भी दिया। शिवभूति ने कहा कि - आपकी कृपा ही मेरा सब कुछ है किन्तु विशेष में में बेरोकटोक स्वेर विहार भ्रमण चाहता हूँ। राजा ने भी स्वेर विहार की अनुमति दी। सुभाषित में ठीक ही कहा है कि यौवन उम्र में यदि धन, सत्ता एवं कुसंग मिल जाए, तब तो भारी तबाही मचा दे। जैसा कि चंचल बंदर को मदिरा का पान और बिच्छु का डंक फिर बात ही न पूछे कि वह कितनी कुदाकूद करता शिवभूति अपनी इच्छानुसार स्वेर भ्रमण करता हआ घर पर कभी देर.से आए। कभी न कभी, कभी तो पूरी रात मित्रों के साथ घूमता-फिरता रहता। ऐसी परिस्थितियों में उसकी पतिवृत्ता नारी बहुत ही परेशान थी किन्तु कुलीन होने के नाते कभी भी स्वामिनाथ को कुछी भी कहती नहीं थी परन्तु मनोमन बहुत ही दुःखित थी, जिस कारण से वह ठीक तरह से भोजन नहीं कर पाती थी, सदा बेचैन, अस्वस्थ रहने के कारण से स्नानादि कार्य भी नहीं कर पाती थी। ___ एक दिन अवसर देखकर सासूजी से कहा कि - माँ मैं आपके पुत्र से बहुत ही परेशान हूँ, वे कभी भी समय पर घर पर नहीं आते हैं। कभी देर से आते हैं, For Private And Personal
SR No.020622
Book TitleSammetshikhar Jain Maha Tirth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1994
Total Pages71
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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