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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कभी आधी रात को, तो कभी-कभी पूरी रात बाहर ही घूमा करते हैं। मैं न तो नींद ले पाती हूँ, न ही भोजन कर सकती हूँ और न ही स्नानादि कार्य भी। सासुजी ने बहु की पूरी परिस्थिति देख ली और शाम को बहू से कहा कि - बेटी आज तुम अपने शयन खंड में चैन से सो जाए, मैं दरवाजे के पास रहूँगी, तुम आराम से सो जाओ। बहू ने वैसा ही किया। कितने दिनों के बाद आज बहू चैन से सोई थी। निश्चिंत अवस्था में ही निद्रा आती है, चिन्तित अवस्था में न तो निद्रा आती है, और न ही भोजन भाता है। ___ मध्य रात्रि के बाद जब शिवभूति घर आया और द्वार खटखटाया, तब अंदर से माताजी ने कहा कि इतनी देर रात कहाँ घुमता-फिरता है। मालूम है कि गृहस्थी का घर इतनी देर रात को खल्ला नहीं रहता है, जाओ अभी घर के द्वार नहीं खुलेंगे, जहाँ द्वार खुला दिखे, वहाँ चले जाओ। स्वैच्छा भ्रमण से उन्मत हुआ शिवभूति वहाँ से चल पड़ा, चलता-चलता वहाँ आया, जहाँ पर पू. आचार्य देव श्री आर्यकृष्णाचार्य विराजमान थे। उपाश्रय के द्वार सदा खुले ही रहते हैं, क्योंकि वहाँ चोरी का कोई भय नहीं रहता और न ही चौकीदार है, क्योंकि उपाश्रय में चोरने योग्य ऐसी कोई बहुमूल्य, कीमती वस्तु भी नहीं रहती है और जो अमूल्य ज्ञानादि धन है, वो तो चुराई नहीं जाती, अत: उपाश्रय के द्वार सदा खुले ही रहते हैं। ___ रात्रि के तीन प्रहर बीत चुके थे, चौथे प्रहर का प्रारंभ हो चुका था। सभी साधु निद्रा त्याग कर अपने-अपने आवश्यक क्रिया स्वाध्याय ध्यान में लीन हो रहे थे। तब शिवभूति ने उपाश्रय के द्वार खुले देखकर प्रवेश किया और पूज्य आचार्य देव के पास आकर हाथ जोड़कर कहने लगे कि - मुझे यहाँ रहने की इजाजत दें, तब पू. आचार्य देव श्री ने कहा कि - यहाँ तो केवल श्रमण साधु ही रह सकते है। शिवभूति ने कहा कि मैं साधु बनूंगा, पू. आचार्य देव ने कहा कि - ठीक है प्रात:काल होते ही संघ समक्ष आपको दीक्षा दी जाएगी। शिवभूति ने कहा - नहीं अभी, इसी वक्त मैं साधु बनूंगा। ऐसा कहकर अपने खुद का परिचय देकर स्वयं ही केश लुंचन करके पूज्य आचार्य देव श्री की चरणों में बैठ गया। पू. आचार्य देव श्री ने देखा कि यह साहसिक एवं कृत निश्चित पुरुष है, यह देखकर उसे साधुवेश दिया एवं शिवभूति मुनि नाम देकर प्रव्रजित किया एवं अन्यत्र विहार भ्रमण में प्रवृत्त हुए। For Private And Personal
SR No.020622
Book TitleSammetshikhar Jain Maha Tirth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1994
Total Pages71
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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