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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ऋषि-मंडल स्तोत्र भाग में प्रणवाक्षर व माया बीज अर्थात् (ॐ) ) से पवित्र बनाना । उन कमल के मध्य में रेफ से (') आक्रान्त कलाबिन्दु () से रम्य स्फटिक जैसा निर्मल आद्यवर्ण (अ) सहित, अन्त्य वर्णाक्षर (ह) स्थापन करना जिस से (अर्ह) बनेगा यह पद प्राणप्रान्त के स्पर्श करनेवाले को पवित्र करता हुवा, इस्व, दीर्घ, प्लूत, सूक्ष्म, और अतिसूक्ष्म जैसा उच्चारण होगा। जिसके बाद नाभिकी, कण्ठकी, और हृदयकी, घन्टिकादि अन्थियों को अति सूक्ष्म ध्वनि से विदारण करते हुवे, मध्यमार्ग से वहन करता हुवा चिन्तवन करना, और बिन्दुमें से तप्तकलाद्वारा निकलते दूध जैसे श्वेत अमृत के कल्लोलों से अंतर आत्मा को भीगोता हुवा चितवन कर अमृत सरोवर में उत्पन्न होनेवाले सोलह पांखडी के सोलह स्वरवाले कमल के मध्यमें आत्मा को स्थापन कर उसमें सोलह विद्यादेवियों की स्थापना करना। देदिप्यमान स्फटिक के कुम्भमें से झरते हुवे दुध जैसा श्वेत अमृत से निजको बहुत लम्बे समय से सिंचन हो रहा हो एसा चितवन करे। इस मंत्राधिराज के अभिधेय शुद्ध स्फटिक जैसे निर्मल परमेष्टि अर्हन्त का मस्तक में ध्यान करना, और एसे ध्यान आवेश में “सोऽहं सोऽहं” बारम्बार बोलने से निश्चय रूप से आत्मा की परमात्मा के साथ तन्मयता हो जाती है For Private and Personal Use Only
SR No.020611
Book TitleRushimandal Stotra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmal Nagori
PublisherSadgun Prasarak Mitra Mandal
Publication Year1940
Total Pages111
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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