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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुमने जब उनकी प्रशंसा की तो क्या तुम्हें कोई प्रतिक्रिया सुनने को मिली? आगन्तुक ने कहा : नहीं। बस अगर तुम संत बनना चाहते हो तो मैं केवल तुम्हें इतना ही बताना चाहता हूँ कि तुम्हारा कोई अपमान करे या सम्मान, दोनों ही परिस्थितियों में तुम वैसे ही समान भाव रखों जैसे कि उन कब्रों में रखा था। भाग्यशालियों। साधुता के लिए एक मात्र प्राथमिक गुण समभाव ही है। इस गुण के बिना साधुता हो ही नहीं सकती। साधुता और समता इतने एकमेक हैं जितना फूल और पराग। जितना मिश्री और मिठास, पानी और दुध। समता यानी प्रत्येक के प्रति समान भाव, जैसे पारस के लिए पूजा की कटोरी का लोहा वैसे ही वधिक की तलवार का लोहा। साधु के लिए जैसा प्रशंसक वैसा ही निंदक । जैसा तृण वैसा ही कंचन । हमारी कोई निंदा करे और हमें गुस्सा आ जाय तो समझना हमें स्तुति की अपेक्षा थी। उस अपेक्षा का भंग हुआ इसलिए गुस्सा आया है। हम सन्मार्ग पर हो। दिल से इमानदारी से कार्य करते रहे हो फिर भी कोई निंदा करता हो तो इसमें डरना क्या? अपना काम करते जाना। उन्हें उनका कार्य करने दो। हाथी के स्थान पर साधक है और कुत्तों के स्थान पर निंदक है। सवाल होगा अगर हम गलत हो झूठे हो तब कोई निंदा करे तो सहनीय है। परन्तु हम सच्चे हो तो फालतू निंदा सहन क्यों करें? भैय्या! हम झूठ को क्यों सहे? इसमें कौनसी बड़ी बात है? भूल होने पर तो सभी सहन करते हैं, परन्तु बिना भूल के भी सहे उसीमें महानता है। हम पसन्द नापसन्द के बीच जीते है। पसन्द में राग होता है और नापसन्द में द्वेष आना संभव है। पसन्द और नापसन्द पर विजय पाना यही सच्ची साधना है। दमदंत मुनि को कौरवों ने गालियाँ दी अपमानित किया, पाँड़वों ने स्तुति की सम्मान किया, परन्तु दमदंत मुनि न कौरवों पर नाराज हुए न पांडवों पर खुश हुए। प्रसन्नचन्द्र एक राजा थे। उन्होंने अपने नाबालिग लड़के को अपना राज्य सौंप दिया और वैराग्यवासित होने के कारण साधु जीवन आपना लिया। एक दिन वे एक जगह पर साधना में लीन थे। दोनों बाहु उपर उठाए दांया पैर बायें पैर पर चढ़ाकर और सूरज के सामने दृष्टि लगाकर ध्यान कर रहे थे। - 71 For Private And Personal Use Only
SR No.020580
Book TitlePriy Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasagar
PublisherPadmasagarsuri Charitable Trust
Publication Year2006
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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