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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सुदर्शिनी टीका अ०४ सू०१ ब्रह्मचर्य स्वरूपनिरूपणम् ७७७ तथवेदं ब्रह्मचर्यम शुभ्रमिति भावः तथा-' निरायासं निरायासं= से हाजनकम्, 'निरुवलेवं ' निरुपलेपम् - विषयस्नेहवर्जितम् तथा ' निव्बुड़घरं ' नि " ईति गृहम् = निवृतेः = चित्तसमावेः गृहं स्थानम्, 'नियम निष्पकं नियमनिष्प्र कम्पं नियमेन निश्चयेन, निष्प्रकम्पं अविचलम् - निरतिचारत्यात्, तथा ' तव - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only " - रूप तुप से विहीन होने के कारण बिलकुल शुभ्र - पवित्र है । (निरायासं) इसके पालन करने से किसी भी प्रकार का पालनकर्त्ता को आयासअर्थात् कष्ट नहीं उठाना पड़ता है इसलिये खेद का अजनक होने से यह निरायासरूप है | ( निरुवलेवं ) वैषयिक पदार्थों को ओर ब्रह्मचारी के जिस में थोड़ा सा भी स्नेह - रागभाव नहीं होता है, अतः विषय स्नेहवर्जित होने से यह ब्रह्मचर्य निरुपलेप है । ( निव्यु ३ घरं ) ब्रह्मचारी के हि चित्त की स्वस्थता रहती है, क्यों कि विषयों की ओर उसकी लालसा नहीं जाती हैं, अतः उस संबंध को लेकर उसके चित्त में असमाधिरूप आकुल व्याकुल परिणति नहीं रहती है इसलिये यह ब्रह्मचर्य चित्तसमाधि का एक घर है । (नियमनिप्पकंप) अतिचारों से विहीन होने के कारण यह ब्रह्मचर्य नियम से निश्चय से निष्प्रकम्प - अविचलित होता है। तात्पर्य यह है कि गृहस्थों के ब्रह्मचर्य व्रत में अतिचार लग सकने के कारण उनका वह ब्रह्मचर्य विचलित नहीं होता है परन्तु सकल संयमी जनों का ब्रह्मचर्य अतिचारों से विहीन होता है, इसलिये यह यहां अविचलित कहा गया है । (तवसंजमहोवाथी तहन शुभ पवित्र छे. " निरायास " तेनु पावन उवाथी पासन કર્તાને કોઇ પણ પ્રકારને આયાસ-ખેદ એટલે કે કષ્ટ ઉઠાવવા પતું નથી तेथी हनन होवाने अराशे ते निरायास३५ छे." निरुवलेवं " वैषयि પદાર્થોની તરફ બ્રહ્મચારીના ચિત્તમાં જરી પણ સ્નેહ-રાગભાવ થતા નથી, तेथी विषयस्नेह रहित होवाथी प्रायर्यंने निरुपयेय छे. " निब्बुइघर' બ્રહ્મચારીના ચિત્તની સ્વસ્થતા રહે છે, કારણ વિષયાની પ્રત્યે તેને લાલસા થતી નથી. તે સ ંબંધને લીધે તેના ચિત્તમાં અસમાધિરૂપ આકુળ વ્યાકુળતાના રૂપ પરિણિત રહેતી નથી. તેથી આ બ્રહ્મચર્ય ચિત્ત સમાધિનું એક ઘર છે, “ नियम निष्पकंप " मतियारोथी :डित होवाने अरोमा ब्रह्मर्य व्यवश्य નિશ્પકમ્પ-અવિચલિત હોય છે તેનુ તાત્પર્ય એ છે કે ગૃહસ્થાના પ્રાચ વ્રતમાં અતિચાર લાગી શકે છે તે કારણે તેમનું બ્રહ્મચર્ય અવિચલિત હતું નથી, પશુ સકળ સ’યમીજનાનું બ્રહ્મચય અતિચારોથી રહિત હોય છે, તે प्र० ९८ "
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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