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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७७६- - प्रश्नव्याकरणसूत्रे विशुद्ध-निर्दोषम् , एषामेव ब्रह्मचर्य तिदोषं भवतीति भावः, तथा-' भव्वं भन्यं कल्याणरूपम् , ' भव्यजणाणुचरियं' भव्यजनालुचरितम् भव्यजनसमारीधितम् , तथा- निस्संकियं ' निःशङ्कितं, ब्रह्मचारी हि विषयस्पृहाशून्यत्वाजनानां मध्ये निःशङ्कनीयो भवतीति ब्रह्मचर्यमपि निश्शङ्कितम् , तथा — निब्भयं' निर्भय, ब्रह्मचारिणो हि निर्भया भवन्ति, निर्भयताकारणत्वात् ब्रह्मचर्यमपि निर्भयम् तथा-'नित्तुपं ' निस्तुषं-विशुद्धमित्यर्थः, यथा-तुपनिर्गतं तण्डुलं शुभं भवति भी बीच में धीर कहे जाने वाले शूरों का अत्यंत साहससंपन्न व्यक्तियों के, धार्मिक पुरुषों के, और धैर्यशाली पुरुषों को यह सदा-कुमार आदि अवस्थाओं में भी सुविशुद्ध-निर्दोष रहता है। (भचं) यह ब्रह्मचर्य कल्याणरूप है । ( भन्यजणाणुचरियं ) भव्यपुरुषों द्वारा यह आराधित कियो हुआ है । ( निस्संकियं) यह ब्रह्मचर्य निश्शंकित होता है । क्यों कि ब्रह्मचारी विषयलालसा से शून्य होने के कारण मनुष्यों के भीतर किसी भी तरह से शंकास्पद नही होता है अतः यह प्रभाव उसके ब्रह्मचर्य का ही है इसीलिये यहां पर सूत्रकार ने निशंकित वृत्ति का कारण होने से ब्रह्मचर्य को भी निश्शंकित कहा है। इसी तरह यह ब्रह्मचर्य (निभयं ) निर्भय होता है। क्यों कि ब्रह्मचर्य को पालन करने वाले पुरुष रत्न सर्वत्र निर्भय रहा करते हैं, अतः निर्भयता का कारण होने से ब्रह्मचर्य को निर्भय विशेषण से सूत्रकार ने विशिष्ट किया है । तथा यह ब्रह्मचर्य (नित्तुस ) निस्तुष है-तुषविहीन तण्डुल जिस प्रकार शुभ्र होता है उसी प्रकार यह ब्रह्मचर्य भी विषय लालसा તરીકે ઓળખાતા શ્રેરે, અત્યંત સાહસયુક્ત વ્યક્તિઓ, ધાર્મિક પુરુ, અને બૈર્યશાળી પુરુષને તે સદા કુમાર આદિ અવસ્થાઓમાં પણ સુવિશુદ્ધ નિર્દોષ २ छ. “ भव्य " 24! प्रहाय त्या३५ छे. " भव्वजणाणुचरिय" भव्य पुरुषो ।२॥ तेनुं १२॥धन. थाय छे " निस्संकिय” २मा ब्रह्माययनित હોય છે, કારણ કે બ્રહ્મચારી વિષય લાલસા રહિત હોવાથી મનુષ્યમાં કોઈ પણ પ્રકારે શંકાને પાત્ર થતો નથી. આ તેના બ્રહ્મચર્યને જ પ્રભાવ હેવાથી અહીં સૂત્રકારે નિશક્તિ વૃત્તિનું કારણ હોવાથી બ્રહ્મચર્યને પણ નિશક્તિ छा है. मे प्रमाणे मा प्रायः “ निम्भय'" निमय काय छे. ४।२६५ है બ્રદાચર્યનું પાલન કરનાર પુરુષે સર્વત્ર નિર્ભય રહી શકે છે. તેથી નિર્ભયતાનું કારણ હોવાથી બ્રહ્મચર્યનું સૂત્રકારે નિર્ભય વિશેષણ લગાડ્યું છે. તથા मा प्राय " नित्तुसं" निस्तुप-तुप विडीन (त। विनाना) या જેમ શુભ્ર હોય છે તેમ આ બ્રહ્મચર્ય પણ વિષય લાલસા રૂપી તુષ વિહીન For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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