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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६८८ प्रश्नव्याकरणसूत्रे संयतेन साधुना 'कालम्मि य' काले च=अवसरे 'वत्तव्य' वक्तव्यम् । एवम् अनेन प्रकारेण · अणुवीइ समिइजोगेण' अनुविचित्यसमितियोगेन अनुविचित्य पर्या लोच्य या समितियोगेन=भागारूपासमितिः, तस्या योगेन ‘भाविओ' भावितःअन्तरप्पा' अन्तरात्मा जीवः-' संजयकरचरणनयणवयणो' संयतकरचरणनयनवदनः संयतं = सम्यग्यतनायुक्त करचरणनयनवदनं यस्य स तथोक्तःसन् समाहितेन्द्रियः सन्नित्यर्थः, 'मरो' शूरः पराक्रमशाली, 'सच्चज्जवसंपन्नो' सत्याजैवसंपन्नः-सत्यम् अमृषा आर्जवम्-ऋजुता, ताभ्यां संपन्नो-युक्तो भवति । इत्येषापथमा भावना ।। मू-४ ॥ गया हो ऐसे हों, ऐसे ही वचन साधु को अवसर आने पर-जब तब नहीं किन्तु बोलने का जब समय उपस्थित हो तब बोलना चाहिये। ( एवं ) इस प्रकार ( अणुवीइसमिइ जोगेण) अनुविचिन्त्य भाषासमिति के योग से-विचार कर बोलने रूप भाषासमिति के संबंध से (भाविओ अंतरपा) भावित हुआ जीव (संजयकरचरणनयणवयणो) अच्छी तरह यतना से युक्त कर-हाथ, चरण-पैर, नयन-नेत्र एवं वदन-मुख वाला बनकर, अर्थात् समाहित इन्द्रियों याला होकर (सूरो ) पराक्रमशाली बन जाता है, अर्थात् सत्यमहाव्रत की आराधना में आये हुए उपसर्गों और परीषहों को जीतने में शक्तिशाली हो जाता है। तथा ( सच्चज्जवसंपन्नो भवइ ) सत्य और ऋजुता से संपन्न बन जाता है। भावार्थ--अहिंसा व्रत की तरह सत्यव्रत की भी पांच भावनाएँ हैं। उनमें पहिली भावना अनुविचिन्त्य भाषा समिति है। विचारસારી રીતે વિચાર કરી લીધું હોય, એવાં વચને જ સાધુએ અવસરે ગમે ત્યારે નહીં, પણ બેલવાને સમયે ઉપસ્થિત થાય ત્યારે બેલવાં જોઈએ. " एवं" 20 ५४२ : अणुवीइ समिइ जोगेण" अनुविचिन्त्य भाषा समितिमा योगथी - विया२ अरीन पासवा३५ लाषा समितिना सथी " भाविक्षो अंतरप्पा" भावित अनेस ७१ "संजयकरचरणनयणबयणो ” सारी शते યતનાયુત હાથ, પગ, નેત્ર અને મુખવાળા થઈને, અથવા સમાહિત ઈન્દ્રિयोवा न " सरो" भाजी मनी नय छ मेरो सत्य महाવતની આરાધનામાં નડેલ ઉપસર્ગો અને પરીષહને જીતવાને સમર્થ બની જાય छ, तथा “ सच्चज्जवसंपन्नो भवइ" सत्य मने तुताथी युवत मनी तय छे. ભાવાર્થ—અહિંસાવ્રતની જેમ સત્યવ્રતની પણ પાંચ ભાવનાઓ છે. તેમાં પહેલી ભાવના અનુંવિચિન્ય ભાષાસમિતિ છે. વિચારપૂર્વક બોલવું તેને અનુ For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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