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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनीटीका अ० २ सू. ४ प्रथमभावनास्वरूपनिरूपणम् १८७ 'चवलं ' चपलं हयगमनवच्चपलभावसमन्वितम् , न नैव कडुयं ' निम्बवत् कटुकम् अर्थतः, न नैव — फरुसं' परुषं-कठोरं-पाषाणवस्कठोरभावयुक्तं, तथा नम्नैव ' साहसम्'- उन्मत्तवत् अविचारितं, तथा-' न य ' न च ' परस्स' परस्य पीडाकर-दुःखजनक 'सावज्जं ' सावधं-सपापं वचनं वक्तव्यम् । उक्तदोषदुष्टं वचनं न वक्तव्यमित्यर्थः। तर्हि कीदृशं वचनं वक्तव्यम् ? इत्याह-'सच्चं च-सद्भूतार्थत्वात् ‘हियं च-परिणाममुखजनकत्वात् , ' मियं ' मित च, परिमिताक्षरत्वात् , तथा-' गाहगं' ग्राहक श्रोतुरर्थप्रतीतिजनकत्वात् , प्रीतिजनकत्वाश्च, ' सुद्धं ' शुद्ध-वेगितत्वादिदोषरहितत्यात , तथा- संगयं ' संगतम्= युक्तियुक्तत्वात् , ' अकाहलं ' अाहलं-मन्मनाक्षररहितत्वातू , च-पुनः ' समिक्खियं ' समीक्षितं-पूर्व बुद्धया पर्यालोचित्तत्वात् , एतादृशं वचनं ' संजएण' (न चवले) घोड़े के गमन की तरह चपलभाव से युक्त (न कड्डयं) नीम की तरह अर्थतः कटुक, इसी तरह (फरुसं) पाषाण की तरह कठोर (न साहसं) उन्मत्त के वचन की तरह अविचारित, और (न य परस्स पीलाकरं ) पर को पीडाजनक (सावज्जा) सावधपापयुक्त ऐसे वचन नहीं बोलना चाहिये। किन्तु जो वचन (सच्चं च) सद्भूत अर्थ को विषय करने वाले होने से सत्य हों, (हियं च ) परिणाम में सुखजनक होने से हितकारक हों, (मियं च ) परिमित अक्षरों से युक्त होने से जो मित हों, (गाहगं च ) श्रोता को अर्थ की प्रतीति एवं प्रीति के कराने वाले होने से ग्राहक हों, (सुद्ध) वेगित्वादि दोषों से रहित होने से शुद्ध हो, तथा (संगयं) संगतयुक्ति युक्त हों, ( अकाहलं ) अकाहल हो मन्मन अक्षर से रहित हों, (समिक्खियं ) समीक्षित हों-बुद्धि से पहिले जिनका विचार अच्छी तरह कर लिया २५५:१मा युत पयन, “न कडुय" नाभन यु टले ४९४, मे ४ ते “ फरुसं" ५८०२ २ १२ “ न साहसं." Sभित्तन पयन र अवियारी, भने “न य परस्स पीलाकर" भीतने पी31118 "सावज्जा" सावध-५१५युत पयन मस नहीं. ५५५ रे क्यन "सच्चं च" यथार्थ मथने विषय ४२॥२ डापाथा सत्य डाय, “हिय च " परिणाम सुमन हवाथी ति।२४ हाय " मिय च" पलिभित सक्षशवाणु वाथी २ भित डाय, “ गाहग च" श्रोताने अर्थनी प्रतीति भने प्रीति रावनार डापाथी आ लाय, " सुद्ध” गित्व मा ५२हित पाणी शुद्ध छाय, तथा " संगय" सात-युस्तियुत आय, “अकाहल" मास डाय-भन्मन पक्ष। विनानु राय, “ समिक्खिय" सभीक्षित खाय-मुद्धिथा न पडदा For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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