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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुदर्शिनी टीका अ. २ सू० ३ सत्यस्वरूपनिरूपणम् ६८१ स्मम् आत्मानमधिकृत्य यद्वचनं तदध्यात्मवचनम् यथा - ज्ञानस्वरूपोऽपमात्मे त्यादि । इति षोडशविधं वचनम् । एवम् उक्तस्पं सत्यम् ' अरहन्तमणुण्णाय' अर्हदनुज्ञातम्-तीर्थङ्करोपदिष्टं 'समिक्खियं' समीक्षितं पर्यालोचितं सदेव 'संजएण' संयतेन-साधुना ' काळे य, काले च अबसरे समागते एव 'वत्तव्यं' वक्तव्यम् । भगवदाज्ञावहिर्भूतं स्वयमपर्यालोचितं वचनं साधुनाऽवसरं विना न वक्तव्यमिति भावः । अयोपसंहारमाह=' इमं च' इत्यादि ' इमं च ' इदं च-पूर्वैरनन्ततीर्थकरमणधरैः प्रोक्तमिदं प्रत्यक्ष ‘पावयणं' प्रवचनम् , 'अलिय-पिसुणफरूस-कडुय-- ववलवयणपरिरकापणट्ठयाए ' अलीकपिशुन-परुष-कटुक-चपलबचनपरिरक्षणार्थ-तत्र अलीकम् असद्भूतार्थ पिशुनं-परतो है परन्तु अच्छे रूप वाला है ४। वचन का सोलहवां भेद वह है, जो अध्यात्म होता है, जो आत्मा को अधिकृत करके बोला जाता है जैसे “ यह आत्पा ज्ञान स्वरूप है" इत्यादि १६ । (एवं अरहंत मणुण्णायं) इस प्रकार इन सोलह तरह के वचनों को बोलने में तीर्थकर प्रभु की आज्ञा है । और जो वचन ( समिक्खियं ) पर्यालोचित हैं अर्थात् अच्छी तरह से विचार करके निकाले गये हो ऐसे वचन (संजएण) साधु को (कालम्मि) अवसर आने पर (वत्तव्वं ) बोलने चाहिये, परन्तु जिन वचनों को बोलने की प्रभु की आज्ञा नहीं है और जो अपोलोचित हों ऐसे वचन साधु को नहीं बोलना चाहिये। अब इसका उपसंहार करते हुए सूत्रकार कहते हैं-(इमं च पावणं) पूर्वकालिक अनंत तीर्थकरों के द्वारा कहा हुआ यह प्रत्यक्षीभून प्रवचन (अलिय-पिसुणफरूस-कडुय-चबलवयणपरिरक्षणयाए ) अलीक, पिशुन, परुष, म " 21 शीर तो छ पण सुदृ२ ३५वाण छ(१६) क्यनना સેળ ભેદ તે છે કે જે અધ્યાત્મ હોય છે, જે આત્માને ઉદ્દેશીને બોલાય छ. म " A! मात्मा ज्ञान:५३५ छे" त्यादि, " एवं अरहंत मणुण्णाय" આ રીતે તે સેળ પ્રકારનાં વચને બોલવાની તીર્થકર પ્રભુની આજ્ઞા છે. અને २ पान " समिक्खियं” पर्यायित छ-सारी रीते पियार सुरीने याशया साय, शोवां वयन " संजएण" साधुसे “कालम्मि" अस२ मावता "वन" मालवास, पजे क्या सोसवानी लगवाननी माज्ञा નથી, અને જે અપર્યાચિત હોય તેવાં વચન સાધુએ બાલવા જોઈએ નહીં. हवे तेनी ५सा२ ४२०i सूत्रा२ ४ --- ' इमंच पावयणं " पूर्व जामीन अनत ती २॥ द्वारा पायेस प्रत्यक्षीभूत प्रवन, “अलिय-पिसुणफरूस-कडुय-चवल-वयण-परिरक्खणद्वयाए” मी-असत्य, पिशुन,५२५ For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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