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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६८२ प्रश्नव्याकरणसूत्रे दोषसूचकं,परुष-परमर्मोद्धाटकं,कटुकम्-उद्वेगजनकम् चपलम् असमीक्ष्य प्रोक्तं यद् वचनं तस्मात्-मुनीनां परिरक्षणार्थम् , अर्थात्-मुनिभिरीदृशं वचनं न वाच्यमिति हेतोः ' भगवया ' भगवता 'सुकहियं ' सुकथितम् । कथम्भूतं प्रवचनं मुकथितम् ? इत्याह-' अत्तहियं ' आत्महितम् आत्मनो हितकारकम् , 'पेच्चाभावियं ' प्रेत्य भाविक-जन्मान्तरेऽपि शुभफलदायकम् , अतएव 'आगमेसिभ' आगमिष्यद् भद्रम्-भविष्यत्कल्याणकारकम् , तथा-' सुद्ध' शुद्धं निर्दोषत्वात् , पुनः 'नेयाउयं ' नैयायिक-न्यावयुक्तम् , वीतरागभाषितात , तथा-' अकुडिलं' अकुटिलम् ऋजुभावजनकत्वात् , ' अणुत्तरं । अनुत्तरम् सर्वश्रेष्ठत्वात् , तथा-सव्वदुक्खपावाणं' सर्वदुःखपापानां सकलदुःवजनकज्ञानावरणीयाधष्टविधकर्मणां 'विउसमणं' व्युपशमनम् सर्वथाप्रशमनकारकम् । एतादृशं प्रवचनं भगवता कथितमित्यर्थः ।। मू-३॥ कटुक, चपल, वचनों से मुनिजकों की रक्षा होती रहे इस अभिप्राय से (भगवया) भगवान ने (सु कहियं ) अच्छी तरह से प्रतिपादित किया है। असद्भूत अर्थ को कहने वाला बचन अलीक, पर दोष सूचकवचनपिशुन. पर के मर्मका उद्धाटक वचन परुष, उद्वेग को पैदा करने वाला वचन कटक, और विना विचारे बोला गया वचन चपल कहलाता है। यह प्रवचन (अत्तहियं) आत्मा का हितकारक है तथा (पेचाभावियं ) जन्मान्तर में भी शुभफल का देनेवाला है। (आगमेसिभदं) इसीलिये इसे भविष्यत् में कल्याणकारक कहा गया है। (मुद्धं ) इस प्रवचन में किसी भी प्रकार का पूर्वापरविरोधरूप दोष नहीं होने से ये शुद्ध हैं । ( नेयाउयं ) यह वीतराग द्वारा भाषित होने के कारण न्याययुक्त है। तथा (अकुडिलं ) इससे ऋजुभाव उत्पन्न हो जाता है इसलिये यह अकुटिल है। (अणुत्तरं ) इस के जैसा उत्तम और कोई કર, કડવાં, ચપલ વચનથી મુનિજનેનિ રક્ષા થયા કરે તે ઉદેશથી " भगवया " लगवाने “ सुकहियं" सारी रीते प्रतिपाइन युछ असहभूत मथने ४ना क्यन अलीक, ५२होष सूय क्यन पिशुन, न भने मुसो पातु वयन परुष, देश पहा ना२ १यन कटुक भने विद्यार्या विना मासायेस क्यन चपल ४उपाय छे. मा प्रययन "अत्तहियं ” मामाने माटे डिता२४ छ तथा “पेच्चाभावियं " समांतरभा ५९ शुभ ३॥ ना३ छे. " आगमेसिभ" ते २0 तेने भविष्यमा ४३या ४१२४ ४ाव्यु छ. “ सुद्धं" આ પ્રવચનમાં કોઈ પણ પ્રકારે પૂર્વાપરવિરોધરૂપ દેષ નહીં હોવાથી તે शख२. “ नेयाउयं" ते वीतराग द्वारा उपाये। पाथी न्याययुक्त छे. तथा "अकुडिल" तेनाथी अनुभाव-स२पता-पन्न थाय छ तथा ते मटिस छ, “ अणुत्तर" तेनार श्रेष्ठ मा ६५ नयी तेथी ते अनुत्तर छ. For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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