SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 729
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ६८० www.kobatirth.org " प्रश्नव्याकरणसूत्रे " नकालिकमिन्द्रियगोचरम् - यथा - मुनिरयं शाखं पठतीत्यादि । तथा - उपनीतादि चतुष्कं वचनम्, तत्र - उपनीतवचनम् - गुणारोपणवचनम्, यथा-' रूपवानयं मनस्त्री स्वादि! अपनी तवचनं= गुणापनयनवचनम्, यथा-' दुःशीलोऽयं दुर्वचनो so ' मित्यादि । उपनीतापनीतत्रचनम् = कंचिद् गुणमारोप्य कोऽपि गुणोऽपनीयते येन वचनेन तदुपनीतापनीतवचनम्, यथा-' रूपवानयं किन्तु दुःशीलः ' इत्यादि । एतद्विपर्ययेण अपनीतोपनीतवचनमपि भवति । येन वचनेन पूर्वे कमपि गुणमपनीय पश्चादपरः कोऽपि गुण उपनीयते तदपनीतोपनीतवचनम्, यथादुःataisi किन्तुरूपar' नित्यादि । तथा पोडशं वचनम् -' अज्झत्थं' अध्याहै, जैसे " ऋषभो बभूव" यह वाक्य परोक्ष अर्थको विषय करनेवाला होने से परोक्ष माना जाता है १० । जो वाक्य वर्तमान काल को विषय करता है वह प्रत्यक्ष वाक्य माना जाता है जैसे " मुनिरयं शास्त्र पठति " यह प्रत्यक्ष वाक्य है ११ । उपनीतवचन १२, अपनीत अवचन १३, उपनीतानीतवचन १४ और अपनीतोपनीतवचन १५, इस प्रकार ये उपनीतादि चार हैं । इनमें जो वचन गुणों का आरोपण करता है वह उपनीत वचन है-जैसे “ यह मनस्वी अच्छे रूप वाला है १ । जो वचन गुणों का अपनयन करता है वह अपनीत वचन है- जैसे यह दुःशील है २ । जो वचन किसीगुणको आरोपित करके किसी गुण का अपनयन करता है वह उपनीतापनीतवचन है, जैसे यह रूपवाला तो है परन्तु दुःशील है ३ । इसी तरह जो किसी गुण का अपनयन करके गुण का आरोपक होता है वह वह अपनीतोपनीतवचन है, जैसे यह दुःशील २। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir होय छे, प्रेम" ऋषभो बभूत्र "" ऋषभ थ गयो " या वाड्य परीक्ष અને વિષય કરનારૂ હાવાથી પાક્ષ મનાય છે ૧૦ જૈ વાકય વમાન કાળને વિષય કરે છે તે પ્રત્યક્ષ મનાય છે “ મુનિ આ શાસ્ત્ર વાંચે છે. ૧૧ (१२) उपनीतक्यन, ( 13 ) अपनीतवयन, (१४) उपनीतापनीतवयन अने (૧૫) અપનીતેાપનતવચન એ રીતે ઉપનીતાદિ ચાર વચન છે. ગુણાનું આરેાણ કરનાર વચનને ઉપનીત વચન કહે (૧) તેમાં આ છે. જેમ કે મનસ્વી સારા રૂપવાળા છે ” (૨) જે વચન ગુણાનું અપનયન उरे छे ते अपनीत वयन छे, प्रेम है " मा दुःशीस छे " ( 3 ) ने वचन अर्ध गुणानुं આપણુ કરીને ાઈ ગુણનું અપનયન કરે છે તે ઉપનીતાપની ત વચન છે, જેમકે “તે રૂપાળા છે પણ દુઃશીલ છે” એ જ રીતે જે વાકય કોઇ ગુણનું અપનયન કરીને કોઇ ગુણનું આરેપણ કરતુ હાય તે અપનીતેાપનીત વચન છે For Private And Personal Use Only "
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy