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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० १ सू० १ पञ्चसंवरद्वारलक्षणनिरूपणम् ५५७ दारकाणि-कर्म-ज्ञानावरणाद्यष्टप्रकारक, तदेव जीवस्य गुण्ठनेन मालिन्यापादकत्वेन रना धूलिः, तद् विदारयन्ति=निवारयन्ति यानि तानि तथोक्तानि, तया-भासयविगासगाई' भाशतविनाशकानि = भवशतानि = जन्मशतानि विनाशयन्ति यानि तानि तथोक्तानि, भवपरम्पराविच्छेदकानीत्यर्थः, अत एव 'दुइसयविमोयगाई' दुःखशतविमोचकानि-दुःखशतानि विमोचयन्ति यानि तानि तथोक्तानि, तथा - ' मुहसयपवत्तगाई' सुखशतवर्तकानि-मुखशतानि प्रवर्तयन्ति यानि ताति तथोक्तानि, तथा-' कापुरिसदुरुत्तराई' कापुरुष चुके हैं उन सबने दीया है। (कम्मरयविदारगाई) ये संवरद्वार कर्मरज के विदारक हैं-ज्ञानावरण आदि आठ प्रकार की कर्मरूप धूलि को ये उडानेनष्ट करने वाले हैं । ज्ञानावरण आदि कर्मों को धूलि की उपमा इसलिये दी है कि धूलि जिस प्रकार मलिनता आदि करती है उसी प्रकार ये कर्भ भी जीव में व्यवहार नय की अपेक्षा से मलिनता करते हैं, अर्थात् ज्ञानादिक गुणों का आवरण आदि कर देने से जीव में अज्ञान आदि विभाव भावों के वर्धक होते हैं। ( भवसयविणासगाई ) ये संवरद्वार भवशतविनाशक हैं-अर्थात्-इनकी आराधना करने मे आरा. धक, जीवों के जो इनकी आराधना के विना सैकडों भव-जन्म-होने वाले थे वे सब नष्ट हो जाते हैं । ( दुक्खसयविमोयगाई ) भवपरंपरा इनके प्रभाव से विच्छिन्न हो जाती है, इसीलिये इन्हें दुःखशत विमोचक कहा है। (सुह सयपवत्तगोई ) जब सैकड़ों दुःख इनकी “सव्व जिणसासणग्गई" ४ सुधीमा रेसा बिनधथ६ यां ते मयां ते १२वारोनी अपहेश मान्य छे “ कम्मरयविदारगाइ" ते સંવરદ્વાર કમરજને નાશ કરનાર છે-જ્ઞાનાવરણ આદિ આઠ પ્રકારનાં કર્મપી, રજનો નાશ કરે છે. જ્ઞાનવરણ આદિ કર્મોને ધૂળ-રજની ઉપમા દેવાનું કારણ એ છે કે ધૂળ જેમ મલિનતા આદિ કરે છે તેમ એ કર્મો પણ જીવમા વ્યવહાર નયની અપેક્ષાએ મલિનતા કરે છે, એટલે કે જ્ઞાનાદિક આદિ ગુણોનું આવરણ કરી નાખવાથી જીવમાં અજ્ઞાન આદિ ઉલટા ભાવોનાં વર્ધક થાય છે. " भवसयविणासगाई" ते संव२६।२ म१शत विनाश छे-2 तेमनी આરાધના કરવાથી આરાધક જીવોના તેમની આરાધના કર્યા વિના જે સેંકડો भ१ थाना सता ते ५५! नट ५४ लय छे “ दुक्खसयविमोयगाइ'' तेमना પ્રભાવથી ભવોની પરંપરા છેદાઈ જાય છે, તે કારણે તેમને દુખ શત વિમે२४ व्या . “ सुहसयपवत्तगाई" ने तेमनी भा२.५नाथी से। For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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