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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे दुरुत्तराणि- कापुरुषैः- कातरैः दुःखेन उत्तीर्यन्ते यानि तानि तथोक्तानि= कापुरुषैः प्रतिप-तुमशक्यानोत्यर्थः, तथा- 'सप्पुरिसनिसेवियाइ ' सत्पुरुषैनिषेवितानि-आश्रितानि, तया-'निबाणगमणमग्गसग्धपणायगाई' निर्वाणगमनमार्गस्वर्गप्रणायकानि=निर्वाण=मोक्षस्तस्य गमने मार्ग इव मार्गा यानि तानि निर्वाणगमनमार्गाणि, तथा स्वर्गे प्रकर्षेण नयन्ति जीवान् यानि तानि स्वर्गप्र. णायकानि, उभयोः कर्मधारयस्तानि तथोक्तानि, पञ्चसंवरद्वाराणि 'भगवया' भगवता महावीरेण 'उ' तु-निश्चयेन 'कहियाणि' कथितानि-पोक्तानि, अत इमान्यवश्यं श्रद्धेयानीति भावः ।। मू०१॥ इति प्रथमसंबरद्वार प्रस्तावना । आराधना से विनष्ट हो जाते हैं तो यह बात भी निश्चित हो जाती है कि ये सैकड़ों सुरखों के प्रवर्तक होते हैं। जब इनका इतना विशिष्ट प्रभाव है तो फिर क्या है हरएक प्रागी इनकी आराधना करने लगेगा. इसके लिये सूत्रकार कहते हैं कि ये संवरद्वार (कापुरिसदुरुत्तराई ) का पुरुष दुरुत्तर हैं-जो कायरपुरुष हैं-उनके द्वारा तो धारण करने के लिये अशक्य हैं । परन्तु ( सप्पुरिसनिसेवियाई ) सत्पुरुषों से ये सेवित-आचरित होते हैं, अर्थात् जो सत्पुरुष हैं-अन्तरात्मा जीव है-वे ही उन्हें धारण करते हैं। अधिक क्या कहा जाय ये संवरद्वार (निव्वाणगमणमग्ग-सग्गप्पयाणगाई ) मोक्ष के गमन में मार्गरूप है, अगर जीव में इतनी योग्यता नहीं हों तो स्वर्ग में प्रयाण कराने वाला जरूर होता है । इस प्रकार के (येपंच संवरदाराई कहियाणि) पांच मंवर द्वार भगवान महावीर ने कहे हैं। इसलिये प्रत्येक भव्य जीव को इन्हें अपनी श्रद्धा का विषय अवश्य बनाना चाहिये। ।०१।। દુઃખ નષ્ટ થઈ જાય છે તે એ વાત પણ નક્કી થઈ જાય છે કે તે સેંકડે સુખના પ્રવર્તક થાય છે. જ્યારે તેમને આટલે બધે વધારે પ્રભાવ છે તે દરેક પ્રાણી તેની આરાધના કરવા માંડશે. તેથી સૂત્રકાર બતાવે છે તે તે સંવ२वार " का पुरिसदुरुत्तराई" पुरुषहरुत्तर छ-२ आय२ ५३षो छ-मडि. सात्मा ७१ छ, तमना द्वारा त धा२१ २वाने माटे म४य छे. ५४५ " सम्पुरिसनिसेवियाई ५१ सत्पु३॥ १ तेतुं सेवन-मा-य२५ ४२राय छे. १५ शु । ते १२वार “ निव्वाणगमणमग्ग सग्गप्पयाणगाई" भाक्षशमनना भाग રૂપ છે, જે જીવમાં એટલી ગ્યતા હોય તે તે તેને માટે અવશ્ય સ્વગ" प्राति ४२११ना। नि: छे, मो मारना "पंच संवरदाराई कहियाणि "पांय સંવરદ્વાર ભગવાન મહાવીરે કહેલ છે. તે દરેક ભવ્યજીવે તેમને અવશ્ય પિતાની શ્રદ્ધાને વિષય બનાવવો જોઈએ. સૂ૧ ! For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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