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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे व्रतानि तानि तथोक्तानि, तथा- 'सीलगुणवरव्बयाई ' शीलगुणवरव्रतानि= शील-चित्तसमाधिः गुणाः विनयादयः तैर्वराणि श्रेष्ठानि यानि व्रतानि तानि तथोक्तानि- ' सञ्चज्जवन्वयई' सत्यार्जवनतानि, तत्र-सत्यम् मृषावादर्जनम् , आर्जवम् मायावर्जनम् , तपाणि यानि व्रतानि तानि तथोक्तानि, तथा'नरगतिरियमणुथदेवगतिविवज्जगाई' नरकतिर्यङ्मनुनदेवगतिविवर्ज कानि नरकतिर्यङ्मनुनदेवाभिधाश्चतस्रोगतीविवर्जयन्ति मोक्षगतिपापकत्वेन यानि तानि तथोक्तानि, तथा- 'सयनिगसासगगाई' सर्वजिनशासनकानि=सर्वनिनः शिष्यन्ते -उपदिश्यन्ते यागि तानि तथोक्तानि, तथा-'कम्मरयवियारगाई' कर्मरजोनिनाम संयम है, इसमें प्रवृत्त साधु के नवीन कर्मों का आगमन रूक जाता है अर्थात् न धोन कर्मों के आस्रव का निरोध होना यहि इस संयम ना फल है। इसलिये ये संवरद्वार तपसंयम रूप महाव्रत हैं । तथा ये संवरद्वार-(सीलगुणवरब्बयाई ) शील गुणवर व्रतरूपहैं-चित्त की समाधि का नाम शील है, विनय आदि का नामगुण है । इनसे श्रेष्ठ जोबत हैं तदूपये संवर द्वार हैं ! (सच्चजकव्यायाई) सत्य-मृषावादका परित्याग, आर्जव-माया कात्याग, इन रूप जो व्रत हैं तदप ये संवरद्वार हैं । (नरगतिरियमणुयदेवाइविवजगाइ ) इनकी आराधना से आराधक जीव को मोक्षगति कीप्राप्ति होती है इसलिये ये संवर द्वार नरक, तिर्यश्च, मनुप्य और देव, इन चारों गतियों से अपने आराधक जीव को दूर कर देते हैं इसलिये ये नरक तिर्यक् मनुज देवगति विवर्जक हैं । ( सव्वजि णसासणग्गइं) इन संवरद्वारों का उपदेश अभीतक जितने भी जिन हो પ્રવૃત્ત થયેલ સાધુને નવાં કર્મોનું આગમન અટકી જાય છે. એટલે કે નવાં કર્મોના અસવને નિરોધ થવો એ જ આ સંયમનું ફળ છે, તેથી તે સંવર द्वार त५ सयभ३५ भारत छ. तथा ते सवा२-" सीलगुणवरव्वयाई" શીલગુણવરવ્રત રૂપ છે-શીલ એટલે ચિત્તની સમાધિ, વિનય આદિ ગુણે કહેपाय छ, तमना पडे श्रेष्रे प्रत छे ते ४२ना ने स१२वार छे. “ सच जवब्वयाई" सत्य-भूषाचाही परित्याग, मा-भायाना त्याग मे जाना २ व्रतो ते ते प्रधान ते सवार छ. " नरगतिरियमणुयदेवाइविवज्जगाई" तेमनी आराधनाथी माराध अपने मोक्षगति से थाय छ તેથી તે તે સંવરદ્વાર પિતાની આરાધના કરનાર જીવોને નરક, તિર્યંચ, મનુષ્ય અને દેવ એ શારે ગતિમાં જતા રોકે છે, તેથી તેઓ નરક, તિર્યચ. મનુધ્ય અને દેવગતિના વિવક છે. For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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